कुंभ में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा सफाईकर्मियों के पैर धोने की खबरें सोशल मीडिया सहित मेन स्ट्रीम मीडिया में सुर्खियाँ बटोर रही हैं। सर्वविदित है कि निकट चुनाव नेताओं द्वारा जनहितैषी दिखने की होड़ लग जाती है! निःसंदेह पीएम द्वारा सफाईकर्मियों के पैर धोने का स्टंट भी उसी की एक कड़ी है। सिर पर मैला ढोने और सीवर में श्रमिकों की असमय मौत की खबरें नित प्रतिदिन आती रहती हैं, जो घोर चिंतनीय है।
वर्णव्यवस्था के साथ ही सदियों से यह परंपरा चली आ रही है। आजादी के बाद सन् 1948 में पहली बार इसे खत्म करने की मांग महाराष्ट्र हरिजन सेवक संघ की ओर से उठाई गई। हालांकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस कुप्रथा के विरुद्ध थे! वे न केवल इसे अमानवीय कृत्य मानते रहे बल्कि उनके जीने की स्थितियों में सुधार के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे।मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने को लेकर देश में व्यापक सहमति है और इस संबंध में सन् 1993 और पुनः 2013 में कानून भी पारित किए गए हैं बाबजूद इसके जमीन पर कोई विशेष परिवर्तन नजर नहीं आ रहे हैं ।आजादी के वर्षों बीत जाने के बाद भी साफ सफाई में लगे हजारों परिवार सामाजिक तौर पर अपमानित महसूस करते हैं ! स्वच्छ भारत के अभियान को केवल सफाई के मुद्दे से जोड़ने की जगह मानवीय गरिमा पर केन्द्रित किया जाना चाहिए।
विडंबना है कि अपनी मजदूरी, बकाये वेतन और अन्य मांगों को लेकर सफाईकर्मियों के आंदोलन की खबरें भी आती रहती हैं और हमारी सरकारें उन पर ध्यान नहीं देती। देशभर में सफाईकर्मियों के रिक्त पदों पर मानक के अनुरूप भर्ती, उनके स्वास्थ्य परीक्षण, बीमा, पुनर्वास तथा सीवर सफाई हेतु आधुनिक मशीनों की उपलब्धता जैसी जमीनी कार्रवाई आज भी जस की तस बनी हुई है।
सफाईकर्मियों के पैर धोकर प्रधानमंत्री जी ने उन्हें सम्मानित करने का संदेश तो दिया है पर देखना है कि लोग इससे कितना सबक लेते हैं। विचारणीय है कि प्रधानमंत्री जी के इस स्टंट से सफाईकर्मियों का कितना भला होगा ? उनकी समस्याओं का निदान हो पाएगा या फिर इस लोकलुभावन सुर्खियों में उनकी समस्याओं पर पर्दा डालकर केवल उनका वोट हड़प लिया जाएगा। आमजनों को गंभीरता से सोचना होगा।
– मंजर आलम, (बिहार)