साम्प्रदायिक और सेक्युलर विचारधारा में बस गमछों का ही फ़र्क रह गया है!


लोग आसान समझते हैं सेक्युलर होना

चौकीदार उदित राज अब सेक्युलर होकर कांग्रेस में शामिल हो गए। अब चौकीदार नहीं रहे…। कितना आसान होता है लोकतंत्र में किसी राजनेता का विचारधारा बदलना। गले में कांग्रेस का गमछा डाला और विचारधारा बदल गयी!

हालाँकि ये बात कभी कभी गले से नहीं उतरती कि गमछा उतारकर भला विचार के केचुल को कैसे उतारा जा सकता है। भारतीय राजनीति रीसर्च का विषय है।

मुझे याद है कि उदित राज पहले भी सेक्युलर हुआ करते थे। गुजरात दंगों के बाद मोदी जी से नाराज़ होकर अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था!

ख़ूब तारीफ़ें बटोरी थी इन्होंने। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्र संघ ने इन्हें सम्मानित किया था। बाद में कांग्रेस की UPA सरकार ने इन्हें पद देकर सम्मानित किया था।

उदित राज की अपनी पार्टी हुआ करती थी। नाम था इण्डियन जस्टिस पार्टी। कभी रथ लेकर उत्तर भारत का भ्रमण किया था उदित राज ने और ब्रह्मणवादी सत्ता की हानिकारक नीतियों से लोगों को आगाह किया था, दलित अस्मिता की बात किया करते थे और दलित आंदोलन को मज़बूत करने का प्रयास करते रहे।

मैं हाईस्कूल से उदित राज के लेख पढ़ा करता था जो अक्सर जनसत्ता में छपा करता था।

धारदार क़लम से मनुवाद पर ज़ोरदार प्रहार किया करते थे उदित राज जी। अपना रथ लेकर मेरे शहर देवरिया भी आए थे मान्यवर।

जब 2014 में इन्होंने भाजपा ज्वाइन की और अपनी पार्टी का विलय भाजपा में कर लिया तो न जाने क्यों मुझे बहुत ज़्यादा अफ़सोस हुआ था!

ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने अपनी राजनीतिक विचारधारा के साथ विश्वासघात किया हो, जैसे किसी ने अपनी क़लम को धोखा दिया हो, जैसे किसी ने अपने स्वप्न का गला घोंट दिया हो, जैसे किसी ने अपने ही शब्दों को शर्मिंदा किया हो।

ख़ैर अब गमछा बदल गया है। घर वापसी हो गयी है। अब सेक्युलर हो गए हैं। सही है, अब साम्प्रदायिक और सेक्युलर विचारधारा में बस गमछों का ही तो फ़र्क रह गया है।

-मसीहुज़्ज़मा अंसारी

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