मुल्ला जी की छब्बीस जनवरी
कल मुज़फ्फर नगर में अपने एक संबंधी के साथ बैठा था . पूछने लगे कि क्या कर रहे हो आजकल ? मैंने बताया कि मुज़फ्फर नगर दंगा पीड़ितों को मुफ्त कानूनी सहायता देने के लिए एक केन्द्र शुरू किया है .
कहने लगे कि कुछ भी कहो ये मुसलमान गद्दार ही रहेंगे . ये कभी इस देश के नहीं हो सकते .
अब मैं अचकचाया कि बात को शुरू कहाँ से करूँ . जो मेरे सामने थे वो रिश्ते में आदरणीय हैं इसलिए तुर्शी दिखाने की मुझे यहाँ छूट नहीं थी .
मैंने आहिस्ता से कहना शुरू किया कि यहाँ जो एक राहत शिविर है ‘जौला ‘गाँव में उसमे करीब हज़ार लोग रह रहे हैं . ये लांक बहवडी लिसाढ़ अदि गाँव के लोग हैं
. इन्होने जौला में इसलिए आकर शरण ली है क्योंकि जौला पूर्णतः मुस्लिम गाँव है .
मेरे आदरणीय की पेशानी पर अभी भी तनाव था .
मैंने कहना जारी रखा .
मैंने कहा कि सन अट्ठारह सौ सत्तावन में जौला गांव की आबादी करीब पांच सौ लोगों की थी . और भारत के उस पहले स्वतंत्रता संग्राम में जौला के ढाई सौ मुसलामानों को अंग्रेजों ने मार डाला था .
मेरे आदरणीय के चेहरे का भाव अब बदलने लगा था . उनकी पत्नी भी कमर पर हाथ रख कर मेरी पराजय की प्रतीक्षा में सन्नद्धः खड़ी थीं . लेकिन अब उन्होंने भी अपनी कमर से हाथ नीचे कर लिए .
मुझे लगा कि मौका अच्छा है अब अगला कारतूस दाग दो . मैंने आगे कहा कि भारत के ख़ुफ़िया राज़ विदेशों को बेचने के जितने भी मामले पकडे गए हैं उनमे पकड़ गए नब्बे फीसदी आरोपी हिंदू हैं . मैंने राजनयिक महिला जासूस माधुरी गुप्ता और सब्बरवाल का नाम बताया .
अब मेरे आदरणीय के चेहरे का भाव एकदम बदल गया . बोले नहीं सभी मुसलमान खराब नहीं होते . लेकिन कुछ तो इनमे से बदमाश हैं ही . मैंने कहा कि जी यूं तो कुछ हिंदू भी बदमाश होते हैं .
अब मेरे आदरणीय पूरी तरह अपने हथियार डाल चुके थे . मैंने अच्छा मौका भांप कर कहा कि देखिये हम न तो इस देश की के इंच ज़मीन को इधर से उधर कर सकते हैं न किसी एक भी नागरिक को भारत से बाहर भगा सकते हैं . हमें इन्ही मुसलमानों के साथ ही रहना है . अब फैसला ये ही करना है कि मिल कर रहना है या लड़ते लड़ते रहना है .
अब वे योद्धा की भूमिका छोड़ शिष्त्त्व मुद्रा में आ चुके थे . बोले हाँ सही कह रहे हो तुम्हारा काम बहुत ज़रूरी है . हमारी किसी मदद की ज़रूरत हो तो बताना .
आज सुबह मुज़फ्फर नगर की पुलिस लाइन में पहुंचा तो साईकिल पर एक टिपिकल मुल्ला जी दाढ़ी और गले में फिलीस्तीनी काले चेक वाला रुमाला लपेटे अपने सात एक साल के बच्चे को साईकिल पर आगे बिठा कर छब्बीस जनवरी की परेड में शामिल होने की लिए आ रहे थे .बच्चे के हाथ में छोटा सा प्लास्टिक का तिरंगा था जिसे वो जोर जोर से हवा में डुला रहा था .
भारतीय मुसलमानों के बारे में मेरे सभी दावों को इस दृश्य ने पुख्ता कर दिया था .
मैं भी मुस्कुराता हुआ छब्बीस जनवरी की उस भीड़ में मुल्ला जी और उनके बच्चे के साथ साथ शामिल हो गया .
–हिमांशु कुमार