“महिला”- यह नाम सुनते ही उसकी स्वतंत्रता, अधिकार, अत्याचार आदि बातें दिमाग मे घूमने लगती है,महिला जितनी शोषित और पीड़ित प्राचीनकाल मे थी आज उससे कई ज्यादा महसूस होती है!
इस तथाकथित सभ्य समाज के लोग आए दिन इन जुल्म सहने वाली महिलाओ के लिए कितने आगे आते है?
प्रशासन खुद अपना काम साधने के लिए इन नन्ही जानों पर हुए अत्याचारों को सुलझाने के बजाए अत्याचारियो से सुलह करवा देता है….
सितम की बात तो ये है कि पीड़ित तथा शोषित महिलाओ को अपने मसलो के हल और जुल्म के खिलाफ प्रदर्शन का मौका ही बहुत कम हासिल होता है और ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओ के पास ऐसे मौके ना के बराबर रहते है।
देखा जाये तो इन पर दूसरी तरफ भी ज़ुल्म बहुत होता है जहां महिला को सिर्फ एक व्यापार चमकाने वाली और बिक्री योग्य वस्तु बना दिया गया है।
हाँ! वो बहुत सी जगह ऊँचे पदों पर है लेकिन सुरक्षा? इससे किसी को कोई वास्ता नही!
पिछले कुछ सालो मे कॉल सेंटरों मे काम करने वाली औरतो के साथ बलात्कार और हत्या की घटनाओ ने पुरे देश को हिलाकर रख दिया था! ऑफिस मे काम करने वाली तानिया बनर्जी का एक कर्मचारी द्वारा बलात्कार और उसकी हत्या..
एच.पी. कम्पनी मे काम करनेवाली प्रतिभा मूर्ति की उसकी कार ड्राइवर के द्वारा हत्या और दिल्ली मे एक के बाद एक दूसरी घटनाएँ जाहिर करती है कि वास्तव मे हालात कितने खराब है!
आये दिन कोई ना कोई उत्पीड़न की घटना देखने को मिलती है चाहे वो बाहर हो या खुद उन्ही के घरो मे…. आखिर क्यों चुप है सब?
घटनाओ के हो जाने के बाद सिर्फ मार्च निकालने से घटनाएँ कम नही होगी। हमें खुद महिलाओं के अधिकारों को व्यक्तिगत रूप से लागू करना होगा और एक स्वर में आवाज़ बुलन्द करनी होगी जो महिलाओ के हक के लिए हो उनकी सुरक्षा के लिए हो ।
आज “महिला दिवस” है ना, इस मौके पर महिलाओ को बधाइयां और शुभकामना देने वाले बहुत मिलेगे लेकिन उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने वाले और उनके अत्याचारो के खिलाफ आवाज उठाने वाले बहुत कम ।
-खान शाहीन