भारत की राष्ट्रीय राजनीति में बिहार की भूमिका भी अहम मानी जाती है। लोकसभा चुनाव 2019 के शंखनाद के साथ ही बिहार में भी राजनीतिक सरगर्मियां जोरों पर है। मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन में है।
भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए में सीटों का बंटवारा हो गया है जिसमें भाजपा – 17 , जनता दल (यूनाइटेड) – 17 और लोक जनशक्ति पार्टी की 6 सीटों पर न सिर्फ समझौता हो गया है बल्कि भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी है। शीघ्र ही अन्य दल अपने उम्मीदवारों के नाम घोषित करेंगे जिसके लिए कवायद जारी है।
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा ने 22सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि उसके सहयोगी दल लोजपा को 6, रालोसपा को 3 सहित कुल 31सीटें मिली थी। परंतु इस बार समीकरण कुछ अलग हटकर है। एनडीए के दो सहयोगी रालोसपा व हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा जहाँ गठबंधन से अलग हो गई है वहीं पिछले चुनाव में नीतीश कुमार की जद(यू) अकेले चुनाव मैदान में थी जिन्हें मात्र 2 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। परन्तु इस बार वे पुनः भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए का प्रमुख अंग है।
भाजपा ने नई रणनीति के तहत जहाँ अपने छः सीटिंग सांसदों के टिकट काटे हैं वहीं पुराने सहयोगियों को साथ लेकर सम्मानजनक सीटें दी हैं। गठबंधन धर्म का पालन करने के नतीजे में रिजल्ट बेहतर हो सकते हैं परंतु यदि सीटिंग सांसदों की नाराजगी बनी रही तो परिणाम अलग भी हो सकते हैं।
वहीं दूसरी ओर एनडीए को सीधे चुनौती देने वाले महागठबंधन में शीट शेयरिंग को लेकर अब तक असमंजस की स्थिति बनी हुई है। अब तक प्राप्त खबरों की मानें तो महागठबंधन के प्रमुख दल राष्ट्रीय जनता दल- 21, कांग्रेस-11, लेफ्ट-6, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी -5, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा-5, विकासशील इंसान पार्टी-2 सीटों पर दावेदारी कर रही है। वहीं शरद यादव की लोकतांत्रिक जनता दल भी महागठबंधन का हिस्सा है।
कुल मिला कर कहा जाए तो राजनीतिक पार्टियाँ लोकसभा की निर्धारित चालीस सीट से भी अधिक सीटों पर अड़ी हुई है जो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है। वैसे तो पार्टियाँ दबाव बनाने के लिए सीटें अधिक करके बता रही हैं। परंतु प्रेशर पाॅल्टिक्स की राजनीति के बीच अंदर खाने कुछ पेंच तो जरूर है! महागठबंधन की गुत्थी सुलझना इतना आसान भी नहीं है जबकि पहले चरण के नामांकन की तिथि करीब आ रही है।
निःसंदेह गठबंधन का मूल मंत्र त्याग, समर्पण, विश्वास, प्रतिबद्धता, और अनुशासन है जो भाजपा व उसके सहयोगियों में देखने को मिलता है। उल्लेखनीय है कि गठबंधन को मज़बूत बनाने के लिए भाजपा अपने छः सीटिंग सांसदों के टिकट काट देती है बावजूद इसके नेता खुलकर बगावत नहीं करते ! भाजपा क्षेत्रीय दलों की जरूरतों को समझती है और उनकी यही रणनीति उन्हें सत्ता के करीब ले जाने में सहायक होगी।
कांग्रेस एक राष्ट्रीय स्तर की एक पुरानी पार्टी है जो देश के हर राज्यों में अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है वहीं दूसरी ओर राजद, हम, रालोसपा जैसे क्षेत्रीय दल सिर्फ अपने राज्यों में ही कैंडिडेट खड़े कर अस्तित्व बचाने की जुगत में है। कांग्रेस अपनी हठधर्मिता को त्याग कर क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर नहीं चल पाई और अलग होकर चुनाव लड़ती है तो वोटों को बिखराव से कोई नहीं रोक सकता है। ऐसे परिस्थिति में बिहार में एनडीए की जीत की राह आसान हो जाएगी ।कांग्रेस को अगर सत्ता में पुनः वापस आना है तो उन्हें अपनी रणनीति पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ।