बुद्ध फूले अम्बेडकर की विचारसरणी के लोगों ने सुविधाओं के संतुलन का रास्ता खोज लिया है

 


अपने आपको धोखा देने की कला से मुक्ति की चाह

बुद्ध,फुले,अम्बेडकर की विचारसरणी के लोगों ने सुविधाओं के संतुलन का रास्ता खोज लिया है।

अब हममें वैचारिक ईमानदारी इतनी भी नहीं बची है ,जहां हम स्वीकार सकें कि हम डॉ अम्बेडकर को पढ़ते हैं,जानते हैं,थोड़ा बहुत मानते भी हैं,पर उनकी उन्हीं बातों को अपनाते हैं जो हमारे लिए सुविधाजनक है,असहज करने वाली बातें हम छोड़ देते हैं।

मूर्तिमान अम्बेडकर हमारे आदर्श है,वे बिल्कुल भी तंग नहीं करते,चाहे जैसी उनकी शक्ल बना दो ,तब भी वे विरोध नहीं करते,जब चाहो माला पहना दो,जब चाहो उपेक्षित कर दो,प्रतिमावान अम्बेडकर सब कुछ सह जाते हैं।

हमें अम्बेडकर की वैचारिकी असहज करती है,उनकी मूर्तियां प्रफुल्लित किये देती है,जैसे हम वैचारिक जड़ ,वैसे ही मूर्तिरूप बाबा साहेब भी जड़ ! साम्यता का बोध होता है,एक जैसा होने का भाव ,एकात्मकता का भयंकर वाला अहसास !

खैर,अभी बात दूसरी कहनी है,हिंदी पट्टी में अम्बेडकर के नाम पर जो कुछ चल रहा है,उस पर ध्यान केंद्रित कीजिये,विचारधारा,मिशन और अम्बेडकरवाद के नाम पर कैसा घालमेल चल रहा है। इसी के लिए मैंने वैचारिक ईमानदारी का सवाल रखा है।

हिंदी पट्टी में हम जैसे तमाम लोग है,जो अभी अम्बेडकरवाद का ककहरा भी नहीं सीख पाये हैं, हां ,जय भीम,जय मूलवासी,जय संविधान के उद्घोष हमने जरूर अपना लिए है,अपने पूर्वजों व देवी देवताओं की मूर्तियों के विकल्प के रूप में डॉ अम्बेडकर की मूर्तियां जरूर लगाने लगे हैं,पर वास्तविक बदलाव कुछ भी परिलक्षित नहीं हो पा रहा है ।

हम न हिन्दू रह पा रहे हैं और न ही बौद्ध हो पा रहे हैं,कहने को नमो बुद्धाय कहते कहते हमारी जबान घिसने के कगार पर है,पर लगे हाथों हम 33 करोड़ देवी देवताओं का आह्वान करने से भी कहाँ चूकते हैं,परम्पराओं में सनातन ब्राह्मणी संस्कृति की इतनी अधिक घुसपैठ है कि इस दलदल से निकल पाना टेढ़ी खीर है ।

ईमानदारी से कहूं तो बाबा साहेब द्वारा निर्धारित 22 प्रतिज्ञाओं को अमल में लाने का साहस आज तक नहीं जुटा पाया,जिन लोगों के बीच रहता हूँ,जिनके लिए काम करता हूँ,उनके जैसा ही हूँ, वो जो करते हैं, उसमें अंधश्रद्धा के आवरण को दरकिनार करके मैं भी वही सब अवचेतन में ही सही करते ही रहता हूँ, हालांकि हर दिन सुधर रहा हूँ,पर अपने ही परिवार,रिश्ते नातों,मित्र बांधवों के मध्य वही सब करता हूँ, जो विचारधाराओं से परे इस देश का आम इंसान करते रहता है।

परम्पराओं की गुलामी का बड़ा आनंद है,उनसे विद्रोह के बड़े खतरे है,यथास्थिति बड़ी सुरक्षित समरस चीज़ है,कुछ भी तकलीफ नहीं। यही समरसता है ।

अब हाल यह है कि हमने तमाम सनातनी त्यौहारों को पानी पी पी कर गालियां देने के बाद एक मज्जिम निकाय ( मध्य का रास्ता ) खोज लिया है,इस परियोजना के तहत यह किया जा रहा है कि तमाम पर्व ,त्यौहारों ,पौराणिक गाथाओं, पुराण पुरुषों का मूलनिवासीकरण करना शुरू कर दिया ।


मैं ” बुद्ध,धम्म और संघ ” की शरण लेना चाहता हूँ,पर किसी प्रतिक्रिया में नहीं और न हीं एक राजनीतिक बयान या सनसनी के लिए,इसकी पूरी तैयारी होगी,यह होगा,पर पूर्णतः भीतर से आयेगा, बाहरी कारणों से यह नहीं हो पाएगा।जब भी यह होगा तो करुणा,मैत्री, अहिंसा का भाव मेरे आचरण से झलकेगा,अभी इनका नितांत अभाव है,बाबा साहेब,बुद्धा और उनके धम्म की मेरी समझ नगण्य है,मैं उसे बढ़ाऊंगा,समझूंगा और ज़िन्दगी में उतार लूंगा ।शायद तब मैं अपने आपको धोखा देने की कला से मुक्त हो जाऊंगा!


होलिका दहन का आनंद भी लेना है और बगावत भी करनी है,इसलिए उसी तरह से सूखे गीले पेड़ ,झाड़ियों व घास फूस को जलाएंगे,पर उस पर मनुस्मृति दहन का टैग लगा देंगे।

दीपावली भी मनाएंगे,पर उसे दीपदानोत्सव का नाम दे देंगे,भजन तो गायेंगे,उसे कबीर सत्संग कह देंगे,मृत्युभोज तो करेंगे,उसे भीम भोज कह देंगे,देवताओं के चरणों मे प्रसाद करेंगे,उसे भीम प्रसादी का नाम दे देंगे,शादी में फेरे ही होंगे ,पर कार्ड पर तमाम बहुजन महानायकों के फोटो छपवा देंगे, विनायक स्थापना व कलश स्थापित करेंगे,उसे बुद्ध कलश कह कर आनंदित हो लेंगे।

बदल कुछ भी नहीं रहा है, क्रांतिकारी भीम सैनिकों की वॉल भी ढूंढ़ोत्सव ,अवतरण दिवस,महिसासुर के बलिदान व शिव ,कृष्ण ,रामदेवपीर पर अपना दावा ठोकते नजर आयेगी।

हम एक मौलिक अम्बेडकरिज्म नहीं पनपा पाये हैं अब तक,अम्बेडकरवाद के नाम पर या तो जिनको हम शत्रु कहते रहते हैं,उनको गालियां दे रहे है ,या उनकी भौंडी नकल उतारते हुए उन्हीं के आदर्शों ,प्रतीकों ,पर्वों, त्यौहारों को हड़पने की असफल कोशिशों में लगे हैं।

मित्रों ,मैं भी इसमें शामिल हूँ, यह आलेख आत्मालोचना के लिए भी है,ऐसा दूसरों पर सवाल उठाने के लिए नहीं,खुद पर अंगुली उठाने के लिए भी है।

मैं भी कहाँ मुक्त हो पाया हूँ अब तक,रह रहकर कोशिश ही करते रहता हूँ,कुछ सफलता मिलती है,ज्यादातर असफलताएं हाथ लगती है। पर धीरे धीरे इस दोहरेपन, दोगले बर्ताव से ऊब होने लगी है,बदलाव के काम मे बीच का रास्ता आत्मग्लानि से भर देता है,इस पार या उस पार हो तो कुछ बात बने।

बुद्ध के महापरिनिर्वाण स्थल कुशीनगर से उनके जन्मस्थल लुम्बिनी तक की यात्रा के दौरान निरन्तर यही ख्याल बना रहा कि इस हिपोक्रेसी से कब निज़ात मिल पायेगी।

आजकल बिल्कुल रुक गया हूँ,स्व अध्ययन व आत्मचिंतन करने में लगा हूँ, जो भी रास्ता है,उस पर खुद चलूं,पूरी ईमानदारी से,तब अन्य साथियों के बीच बात करूँ, अन्यथा तो पर उपदेश कुशल बहुतेरे वाली बात ही चरितार्थ होगी।

अब बाबा साहेब, बुद्ध ,कबीर ,फुले की वैचारिकी की समझ बनाने ,उनकी सैद्धान्तिकी को आत्मसात करने व उस पर चलने के प्रयास में लगूंगा,तब तक जैसा हूँ, वैसा तो हूँ ही ।

मैं संवैधानिक मूल्यों में अपनी आस्था को प्रगाढ़ कर रहा हूँ,मिशन के नाम पर जातिवाद,नस्लवाद और दोगलेपन से बचते हुए,सब भारतीय नागरिकों की आस्थाओं का सम्मान करते हुऐ अपनी राह पर चलने की कोशिश में हूँ।

होली हो या दीवाली ,उन्हें उनके मूलस्वरूप में रहने दीजिए,उनका जबरदस्ती श्रमण संस्कृति में विलीनीकरण न केवल गलत नजीर होगा,बल्कि यह मिश्रण बेहद खतरनाक होगा,इस दोगलेपन से बेहतर हैं कि हम इन्हें उसी तरह से मना लें,जैसे आम भारतीय नागरिक मनाते आ रहे हैं।

मैं ” बुद्ध,धम्म और संघ ” की शरण लेना चाहता हूँ,पर किसी प्रतिक्रिया में नहीं और न हीं एक राजनीतिक बयान या सनसनी के लिए,इसकी पूरी तैयारी होगी,यह होगा,पर पूर्णतः भीतर से आयेगा, बाहरी कारणों से यह नहीं हो पाएगा।

जब भी यह होगा तो करुणा,मैत्री, अहिंसा का भाव मेरे आचरण से झलकेगा,अभी इनका नितांत अभाव है,बाबा साहेब,बुद्धा और उनके धम्म की मेरी समझ नगण्य है,मैं उसे बढ़ाऊंगा,समझूंगा और ज़िन्दगी में उतार लूंगा ।

शायद तब मैं अपने आपको धोखा देने की कला से मुक्त हो जाऊंगा ।

– भँवर मेघवंशी

(सामाजिक चिंतक और पिछड़ों की आवाज़ उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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