किसान दलित अल्पसंख्यक आदिवासी के नाम की बोतल पर “संघी” ढक्कन जम नहीं रहा

 

अथ श्री बोतल गाथा !

कल मार्केट में एक नई बोतल आई ,खाली है ,भरी है, पानी की है, सोडा की है या किसकी ..,कोई नहीं जानता,पर बोतल है और एकदम नई है ।

कुछ लोगों को यह अच्छी नहीं लगी तो उन्होंने कह दिया कि शराब पुरानी ही है,सिर्फ बोतल ही नई है,तो कुछ को लगा कि इस चुनावी माहौल में खाली बोतल का क्या मतलब? अभी तो लबालब बोतल होनी चाहिए थी ।

खैर,बोतल से उतनी दिक्कत नहीं होती ,अगर बांसुरी उसके साथ नहीं आती तो ,पर आ गई तो बजेगी भी ,यह बोतल और बांसुरी का मेल लोग पसन्द नही कर पा रहे है ।

जिन साथियों ने कड़ी मेहनत करके इस बोतल को बनाया, उनको अपनी बोतल पर संघी ढक्कन बिल्कुल ही पसन्द नहीं आ रहा है,लोगों की राय है कि जब बोतल लोकतांत्रिक है तो ढक्कन दीनदयाल का क्यों ?

हर कोई जानता है कि यह जो बागी कमलगट्टों ने बांसुरी बजाई है,उसकी गर्भनाल संघ परिवार से जुड़ी है,उसके सुर भारती भवन से माननीय भाईसाहबगण निर्धारित करते है,ऐसे में लोकतांत्रिक बोतल की स्वायत्तता ही प्रश्नों के घेरे में आ गई है।

दलित,आदिवासी,अल्पसंख्यक, किसान ने मिलकर जो रस इस किसान लेबल की बोतल में भरा ,उस पर दलित आदिवासी अल्पसंख्यक विरोधी मनुवाद का ढक्कन लग गया है । अब लग रहा है कि यह बोतल भरने योग्य नहीं ,फोड़ने योग्य है,यह फायदा नहीं नुकसान कर सकती है।

दरअसल दलित ,आदिवासी और अल्पसंख्यक वोटों को बिखेरने की संघी पटकथा के लेखक ही इस किसानी बोतल और यजमानी बांसुरी के मिलाप बिंदु है,ये लोग अंततः शाह की गंगोत्री में ही जा मिलेंगे,इनका साम्प्रदायिकता विरोध महज दिखावा मात्र है,मेरी दृढ़ मान्यता है कि अन्ततः इस बोतल से भूदेव ही सोमरस पान करेंगे,यह उन्हीं को फायदा देगी,इस प्रदेश के वंचितों को नहीं।

समझदार साथी तो इशारों में ही समझ जाते है,मैंने तो पूरी कथा लिख दी है । बोतल औऱ बांसुरी को बजने दीजिये, इसकी धुन पर नाचना हमारे लिए ठीक नहीं है ।

इति श्री बोतल कथा ।

– भंवर मेघवंशी
(संपादक – शून्यकाल )

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