-अहमद क़ासिम
5:30 पर ट्रेन थी,लेट हो गयी और 7 बजे के करीब दिल्ली से छूटी,अब सफर पूरी तरह शुरू हो चुका था,मैं खिड़की पर बैठा मौसम के बदलते रुख को महसूस करने की कोशिश में लग गया लेकिन असफल रहा क्योंकि ट्रेन अपनी मध्यम गति में देश की राजधानी दिल्ली कि उस दुर्दशा से होकर गुजर रही थी जिसे दिल्ली का हिस्सा कहते हुए विकाशील राष्ट्र स्मार्ट सिटी या नए भारत का हर छोटा बड़ा सपना चकनाचूर हो जाता है ओर उस अधकच्चे विश्वास के सारे भरम टूट जाते हैं।
मैं इसी सोच में गुम दिल्ली से बाहर निकल आया था,मेरे सामने वाली सीट पर जवानी से अधेड़पन के बीच की उम्र के भय्या बैठे थे जिनसे दिल्ली की उस हालत पर थोड़ी बहुत बातचीत हो चुकी थी,बातों के दरमियां उन्होंने बताया कि उन्हें जैसलमेर जाना है और वह बीएसएफ में है,अब उनसे बातचीत का मेरा तरीका थोड़ा बदल चुका था ये जानकर कि वह सेना के जवान हैं,मैं दिल्ली वाली दुदर्शा पर चुपके चुपके से इसे सरकार की विफलता बताकर उनकी सोच जानने की कोशिश कर रहा था,लेकिन उनका मानना था कि रेलवे की पटरियों के इर्द गिर्द रह रहे ये लोग आसाम बंगाल और बिहार से आए हैं,ओर इन्हें ये ज़िन्दगी स्वीकार भी है।
कुछ देर बाद मैं अपने मोबाइल में व्यस्त हो गया और भय्या खाना लगाने की तैयारी में,उन्होंने शुरुआत से पहले मुझसे खाने की ज़िद पकड़ ली जबकि इससे पहले मैं उनके आग्रह पर उनके पेश किए गए चिप्स,कुरकुरे ओर बिस्किट्स खा चुका था,मैंने जैसे तैसे उन्हें मना लिया और ऊपर अपनी सीट पर सोने के लिए आगया।
नींद एक ऐसे कॉल से उचट गयी जिसमें मेरे लिए सिर्फ इनकमिंग है आउटगोइंग नही,ये मैं नही समझाऊंगा क्यूंकि सबकी अपनी निजी जिंदगी भी तो है
अब नींद शायद राजगढ़ स्टेशन पर उतर चुकी थी,इसीलिए सोने की हर कोशिश बेकार जा रही थी,मैं उठकर गेट पर चला गया क्यूंकि ये एक ऐसी जगह है जहां खड़े रहकर आप माज़ी से मुस्तकबिल के कई ख्वाब घूम आते हैं,कुछ गुज़रे हुए और कुछ संजोए हुए।
वापस लौटकर देखा तो एक दूसरे भय्या ने मेरी सीट पर अपना दस्तरख्वान सजाया हुआ था,उन्होंने सीट की अनुमति मांगी और मैं मुस्कुरा कर फिरसे गेट पर आगया,थोड़ी देर बाद किसी ने कंधे पर हाथ रखा और कुछ ऐसा कहा जिनसे सुनकर मैं निशब्द हो गया “भाई आप मेरे साथ खाना खा लीजिए,आज ज़्यादा भी बनवा लाया हूँ,अपने घर का ही है” ये एक अजब इत्तेफाक था कि बीते दो घण्टो में दो अनजान हमराही भाइयो ने जिनसे मुलाकात सिर्फ कुछ पलों की थी मुझे इतनी मुहब्बतें दी,मैं समझ नही पा रहा था कि क्या कहूँ ? ओर वो बची हुई तीन चार रोटियां दिखाकर खाने की गुजारिश कर रहे थे।
इनका नाम बलवंत सिंह था वही पहले वाले कि तरह सेना का जवान,हमारा भारत अभी ज़िंदा है और हमेशा रहेगा चन्द नफरतों की कोशिश हमारी मुहब्बतों से टकराने लायक नही हैं। मैंने उनकी ज़िद पर एक लुकमा खाया था ओर ये मेरी सेहत के लिए सबसे ज़्यादा फायदेमंद होगा