-अशफ़ाक़ ख़ान
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का वो आदेश फिर चर्चा मे है जिसके अनुसार सात मुस्लिम बाहुल्य देशों के नागरिक व शरणार्थीयों के अमेरिका मे प्रवेश की अनुमति नहीं है। इस बार चर्चा का कारण देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा इस निर्णय को कानून सम्मत और संवैधानिक मान लेने से है । ज्ञात रहे है कि ट्रंप ने राष्ट्रपति बनते ही इस तरह का फरमान जारी किया था । पर उनके इस फैसले पर निचली अदालतों ने असंवैधानिक और अमानवीय ठहराते हुए अस्थायी रोक लगा दी थी। अब देश की सुप्रीम कोर्ट ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये आवश्यक बताते हुए ट्रंप प्रशासन के हक मे फैसला सुनाया है। फैसला आते ही ट्रंप ने इसे अपनी जीत बताया है । तो दूसरी ओर देश के बड़े राजनीतिक दल डेमोक्रेटिक पार्टी और अलोचकों का मानना है कि ये फैसला धार्मिक व नस्लीय नफरत से प्रेरित है।
निस्संदेह कोई भी देश राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता नहीं कर सकता ।और उसकी ये प्राथमिकता होती है कि नागरिकों को आन्तरिक व बाह्य दुश्मनों के डर से आजादी दिलाये । लेकिन इस घटनाक्रम के सभी पक्षों पर तटस्थ होकर मंथन करने की आवश्यकता है। ट्रेवल बैन की इस सूची मे अधिकतर वही देश सम्मिलित है जो प्रतिस्पर्धा या परोक्ष रुप से युद्ध से पीड़ित है । जहां पर मानवीय संकट चरम पर है । वहां के नागरिकों का अपने ही देश से पलायन एक बड़ी समस्या है। ऐसा स्थिति मे क्या अमेरिका का शरणार्थियों को न अपनाने का ये रवैय्या गैर जिम्मेदारी पूर्ण नहीं है ? क्या विश्व के अन्य देश जो शरणार्थियों को पनाह दिये हुए हैं या देना चाहते हैं , ये निर्णय उनको हतोत्साहित नहीं करेगा ? जबकि अमेरिका इन देशों मे चल रहे गृहयुद्ध मे स्वंय संलिप्त रहा है ।कुछ जानकार तो अमेरिका को ही इन देशों की अस्थिरता और स्वायतत्ता का सबसे बड़ा दुश्मन समझते हैं । यहां ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब अमेरिकी सरकार इन देशों के नागरिकों से इतनी नफरत करती है तो फिर इन देशों के आन्तरिक मुद्दों पर इतनी मुखर क्यूं है ? आखिर अमेरिका को ये अधिकार किसने दिया कि सीरिया , इराक जैसे देशों की सीमा और अस्मिता का उल्लंघन कर वहां बम बरसाये और इंसानी मौतों पर अट्टाहास करे ? इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि सीरिया युद्ध को इतना डरावना और पेचीदा बनाने मे अमेरिका की भूमिका अहम है । शरणार्थियों की समस्या वैश्विक है , इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । इस घटनाक्रम का एक दिलचस्प पहलु ये है कि इसमे ईरान भी शामिल है । जहां एक लोकतांत्रिक सरकार है और अस्थिरता जैसी कोई चीज दिखाई नहीं देती । फिर अमेरिका द्वारा ईरान का इस श्रेणी मे डालने के पीछे क्या मानसिकता है ? ऐसा करने के पीछे अमेरिकी सरकार की एक विशेष धर्म के प्रति दकियानुसी पूर्वाग्रह को दर्शाता है। और धार्मिक पृष्ठभूमि के आधार पर किसी भी देश मे प्रवेश पर पाबंदी को कोइ नहीं स्वीकार सकता । अमेरिका के पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते से दूर होना , ईरान के साथ हुई न्युक्लियर डील से पीछे हट जाना, भारत और चीन के साथ ट्रेड वार और अब अप्रवासियों और शरणार्थियों के साथ दुर्व्यव्हार एक नये पक्ष को भी उभारता है , वो है अमेरिका का अपने हितों का सर्वोपरि रखना , जिससे अमेरिका की विश्वपटल पर एक नई छवि भी बन रही है । इस फैसले का बड़े पैमाने पर स्वंय अमेरिका मे विरोध होता रहा है। क्योंकि अमेरिका का बड़ा वर्ग ये मानता रहा है कि ये कदम न सिर्फ देश के संविधान के विरुद्ध है अपितु इससे अमेरिका के प्रति शेष दुनिया मे एक नकारात्मक संदेश भी जायेगा। प्रारंभ मे जब इसको पारित किया गया तो अमेरिका की निचली व जिला न्यायधीशों ने इसे पूरी तरह खारिज कर दिया। अमेरिका के कई राज्यों के अटॉर्नी जनरल ने राष्ट्रपति के इस फैसले के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। और उन्हें सफलता भी मिली।खुद अमेरिका मे भी इस विषय पर मिली-जुली राय है । और इसका उदाहरण सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले मे भी देखने को मिला । जब इस प्रावधान पर बहुत मामूली से बहुमत के साथ फैसला सुना दिया । कोर्ट मे चार जज इस आदेश के विरुद्ध मे थे जबकि पांच इसके पक्ष मे । इससे समझा जा सकता है कि ये विषय कितना विरोधाभासी और व्यापक है।जिसपर कोई सरलीकृत राय बनाना तो मुमकिन ही नहीं।इस निर्णय के विरोध मे अमेरिका मे कई जगह विरोध प्रदर्शन और रैलियां भी आयोजित की जा रहे है। जिसमे विभिन्न राजनीतिज्ञ और समाजिक कार्यकर्ता भी शामिल होकर इस फैसले के बाद इससे असहमति व्यक्त कर रहे हैं । अब देखना होगा कि अमेरिकी समाज धर्मनिरपेक्षता और मानवीय मूल्यों पर आघात लगाने वाले इस निर्णय का किस तरह मुकाबला कर अपनी छवि पर लगने वाले दाग को धोने का प्रयास करता है ।