मेरे कलम-ओ-अल्फ़ाज़….!
रूठे बैठे हैं, वो…. शिकायत करते हैं. ….
बड़े दिन हुए,मिली नहीं हमसे ठीक से…
मसरूफ़ हो गई हो बड़ी,-कहते हैं….
कलम उठाई तो मैंने कई दफ़ा बतियाने को
मगर दो जुमलों के आगे बढ़ न सकी…
वो झाँकते पन्नों की परतों से, कोसते…
फिर हताश,दो गाली दे मौन हो जाते…
“और साथी जो बन गए हैं तुम्हारे,
कभी general तो कभी vibrate mode पर…
ये बीच में ही थरथरा जाता है,
फिर आधे में ही छोड़ हमें,उससे बतियाने लगती हो
अब तो हमारे लिए वक्त ही नहीं मानो,
पहले तनहाई में सुकून से मिला करती थीं…
अब थकी आती हो,
हम बस सिराहने रखे इंतज़ार करते हैं…
चलो,कहीं निकल पड़ते हैं,
इस मसरूफ़ियत से दूर
Switch off mode कर,
कहीं तनहाई में फिर सुकून से मुलाकात करते हैं…
घंटों बतियाना फिर हमसे,
अपने कलम-ओ-अल्फ़ाज़ से…..!
-कनक शर्मा