पहले रामायण आती थी तो सड़कों पर कर्फ्यू लग जाता था. आज सड़कों पर कर्फ्यू है तो रामायण आ रही है. हमारा एक बड़ा वर्ग श्रीराम लला को ठुमक-ठुमक कर चलते देख भाव-विभोर हो रहा है. लेकिन एक दूसरे वर्ग को इस मनोरम दृश्य से कोई सरोकार नहीं. आप चाहें तो उन्हें विधर्मी समझ सकते हैं. लेकिन इन लोगों की अपनी मज़बूरी है !
ये लोग महलों में चलना सीख रहे रामलला की बजाय अपने नौनिहालों को राजमार्गों पर कई किलोमीटर चलते देखने के लिए मजबूर है. इन मासूमों के चाल की ठुमक, कसक में दब गई है. इन बच्चों के पिताओं के दृग भी राजा दशरथ की तरह आंसुओं से भीगे हैं, लेकिन यहां उसकी वजह स्नेह नहीं बल्कि वेदना है.
इन बच्चों के पिताओं ने भी कोशिश की थी कि उनके कलेजों के टुकड़ों के पैर ज़मीन को न छूने पाए. सो उन्हें कंधे पर उठाए चल दिए सूरत से, अहमदाबाद से, जयपुर से, अपने-अपने घरों की ओर लेकिन एक कुपोषित मजदूर के कंधे, जो पहले से ज़रूरी सामान से लदे झोले के बोझ तले झुके जा रहे थे, आख़िर कब तक अपनी औलाद का वजन झेल पाते. 10 किलोमीटर? 50 किलोमीटर? 100 किलोमीटर? 500 किलोमीटर? उन बच्चों को तो सड़क पर आना ही था.
अब वे मासूम बिलख रहे हैं और चलते जा रहे हैं. पैजनिया की छनक की जगह उनका क्रंदन ही उनके क़दमों को आगे बढ़ने की हिम्मत दे रहा है. क्योंकि इन्हें अभी सैंकड़ों किलोमीटर आगे और जाना है.
बचपन में हम गुनगुनाए करते थे,
‘चंदन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है, हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है.’
अफ़सोस कि ये बदनसीब बच्चे राम नहीं है. रानी कौशल्या श्रीराम लला को पानी भरे चांदी के थाल में गोल-गोल चंद्रमा की परछाई दिखाकर मनाया करती थीं,
लेकिन इस समय सड़कों पर चल रहे सैंकड़ों-हजारों बच्चों की माएं उन्हें गोल-गोल रोटी का अक्स दिखाकर बहलाने की कोशिश कर रही हैं. श्रीराम के पास खेलने के लिए चांद नहीं था, इन बच्चों के पास खाने के लिए रोटी नहीं है.
इन बदनसीब मां-बापों के हृदय इस मुश्किल वक़्त को टालने के लिए निश्चित तौर पर श्रीराम के नाम का जाप कर रहे होंगे. लेकिन ऐसा भी जाने कब तक होगा, कहना मुश्किल है! वो कहते हैं ना कि ‘भूखे पेट न भजन होए गोपाला’. श्रीराम जी से प्रार्थना कीजिए कि ये लोग जल्द से जल्द अपने-अपने गंतव्यों पर अपने-अपने ललाओं के साथ सही-सलामत पहुंच जाएं ताकि हमारी ही तरह दूरदर्शन पर रामायण देख सकें.
बाकी तो ये हमारे और हमारे नेताओं के लिए बिल्कुल ठीक समय है कि श्रीराम के चरित्र को सिर्फ़ देखने की बजाय उससे बहुत कुछ सीखा भी जाए।
– पुलकित भारद्वाज, (लेखक पत्रकार हैं और सत्याग्रह में कार्यरत है, यह लेख मूल रूप से उनके फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है।)