मतदाताओं के दिमाग़ में धार्मिक उन्माद का ज़हर भरना कितना घातक साबित होगा!


समझने की कोशिश कीजिए कि एक वोटर के माइंड को किस तरह कंट्रोल किया जा रहा है!

आज के चुनावी में हालातों को वोटर के माइंड को बहुत ही शानदार तरीके से कंट्रोल किया जा रहा है और सारा खेल उसी पर है।

राष्ट्रवाद, धर्म, जाति के बनाये मंचों पर नेता लेट-लेट कर वोट मांग रहे हैं। हिन्दू-मुस्लिम खुलेआम उछल रहा है।

इन सब के बीच बार-बार चुनाव आयोग के नोटिस इधर-उधर उछलते दिख रहे है जिसके बाद आयोग की संवैधानिक छाप और विश्वनीयता पर सवाल उठना लाजमी है।


यह वाजिब बात है कि चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं का होना ही हमारे जैसे लोकतंत्र की खूबसूरती है, लेकिन उनके महज नोटिस देने, वार्निंग देने के पीछे लाखों की भीड़ में जो मैसेज चला जाता है, क्या उसका कोई समाधान है? आइए समझते हैं

कुछ हाल में हुई घटनाओं पर गौर कीजिये जो चुनाव आयोग तक पहुंची, हालांकि किसी पर भी अभी कोई ठोस फैसला नहीं आया है


देश के प्रधानमंत्री सेना के नाम पर वोट मांगते है, बालाकोट की एयर स्ट्राइक पर लोगों में जोश भरते हैं।

राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह अपने पद की धज्जियां उड़ाते हुए बीजेपी को वोट देने की अपील करते हैं।

यूपी के बाबा सीएम सेना को मोदी सेना कहते हैं, फिर अली-बजरंगबली का जिक्र करते हैं। मोदी सेना वाले पर वार्निंग मिली और अली-बजरंबली पर सिर्फ नोटिस।

मेनका गांधी खुलेआम मुसलमान वोटरों को धमकाती है, साक्षी महाराज पुण्य-पाप की बात करते हैं।

और भी कई प्रसंग है, अब इन सभी घटनाओं में आप एक फिक्स पैटर्न देखिए कि सारी बातें भरी सभा यानि हजारों-लाखों की भीड़ में बोली गई है।

जितनी मनोविज्ञान मैं जानता हूं उसके मुताबिक आपके क्षेत्र में आकर कोई बड़का नेता चाहे जो भी बोले उसका जिक्र अगले कई दिनों तक नुक्कड़ों पर रहता है, माने वो बात दिमागी तौर पर फिट होने के प्रोसेस में जा चुकी है।

मीडिया में खूब हो-हल्ला होता है जिससे एक खास तबके के लोगों के प्रति लोगों की एक तस्वीर बनती मिटती रहती है।

दूसरी तरफ चुनाव आयोग की प्रक्रिया जो अगले दिन नोटिस देता है, वार्निंग देता है, ठीक है, अब कुछ सवाल –

क्या चुनाव आयोग की वार्निंग उन हज़ारों लोगों की भीड़ तक पहुंच पाती है?

क्या मीडिया चुनाव आयोग जैसी संस्था को नेताओं की सोशल इंजीनियरिंग से ऊपर रखता है?

क्या नेता ने जो बात बोली उसका असर चुनाव आयोग कम कर पाता है?

बस इन्हीं सवालों के जवाब मिलना मुश्किल है, बात संदेश की हो रही है कि एक वोटर तक ये संदेश नहीं पहुंच पाता कि देखो भईया, आप गलत बोलोगे तो चुनाव आयोग बतएगा आपको। इस प्रोसेस में सबके सामने हमारे नेता वो बोल जाते हैं जो वो बोलना चाहते हैं।

चुनाव आयोग की गरिमा के पल्लू में मत बंधे रहिये इस गेम को समझिए।

– अवधेश पारीक

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