यह पत्र स्वामी विवेकानंद ने मुहम्मद सरफ़राज़ हुसैन को अल्मोड़ा से 10 जून, 1898 को लिखा था।
(वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन जी के ट्विटर अकाउंट @tribhuvun से साभार)
“यदि किसी धर्म के अनुयायी व्यावहारिक जगत् के दैनिक कार्यों के क्षेत्र में समानता को योग्य अंश में ला सके हैं तो वे इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं। …वेदांत के सिद्धांत कितने ही उदार और विलक्षण क्यों न हों; वे इस्लाम की सहायता के बिना मनुष्य जाति के लिए मूल्यहीन हैं।”
“हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं, जहाँ न वेद हैं, न बाइबिल है, न कुरआन; लेकिन वेद, बाइबिल और कुरआन के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। दरअसल, सब धर्म उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न रूप हैं। इसलिए हर व्यक्ति इन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।”
“हमारी मातृभूमि के लिए हिंदुत्व और इस्लाम का सामंजस्य आवश्यक है। वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर, यही एक आशा है।”
“मैं अपने मन की आँखों से भावी भारत की उस पूर्णावस्था को देखता हूँ, जिसका इस विप्लव और संघर्ष से तेजस्वी और अजेय रूप में वैदांतिक बुद्धि और इस्लामी शरीर के साथ उत्थान होगा।”
स्वामी जी के उस पत्र से, जो उन्होंने मुहम्मद सरफ़राज़ हुसैन को अल्मोड़ा से 10 जून, 1898 को लिखा था।
– त्रिभुवन