चौकीदार के नेरेटिव में कई झोल हैं:
अब जब प्रधानमंत्री मोदी और पूरी कैबिनेट, मंत्री परिषद और बीजेपी के सभी पदाधिकारी ट्विटर पर अपने नाम के आगे चौकीदार लगा चुके हैं तो इस बात को तय माना जाये कि चुनाव से पहले अब इस चौकीदारी से निकालना आसान नहीं होगा. चौकीदारी की ड्यूटी निभाना मुश्किल काम है और बीच चुनाव में छोड़ कर भागना और भी मुश्किल होगा.
पूरी सरकार और पार्टी को एक झटके में चौकीदार बना देना साहसिक कदम है. लेकिन ज़रूरी नहीं है कि ये ठीक कदम ही हो. छत से कूदना भी साहसिक कदम होता है जिसका अंजाम क्या हो सकता है बताने की ज़रूरत नहीं है.
चौकीदार की किस्में भी रोचक हैं.
तड़ीपार रह चुके और हत्या और अपहरण के आरोप में जेल काट आये अमित शाह भी चौकीदार है और भ्रष्टाचार के मामलों में सलाखों के पीछे महीनों काट चुके येदियुरप्पा भी चौकीदार हैं. एमजे अकबर ने भी ये बिल्ला लगा लिया है हालांकि इनकी चौकीदारी को लेकर महिलायें सशंकित हैं.
संत कबीर नगर में अपनी ही पार्टी के विधायक को चप्पलों से पीटने वाले सांसद शरद त्रिपाठी भी चौकीदार हैं. आने वाले दिनों में नाना प्रकार के चौकीदार सामने आयेंगे. मोदी जी ने एक झटके में पार्टी के नेताओं की जग हसाई का इंतजाम कर दिया है. कॉमेडी लिखने, चुट्कुले लिखने वालों और कार्टूनिस्टों को तो अब कंटेंट की कमी पड़ेगी.
क्या कर सकता है और क्या नहीं ये चौकीदार:
पहला काम तो ये चौकीदार करेगा कि पूरे चुनाव के दौरान राफ़ेल, नीरव मोदी, मेहूल चौकसी, विजय माल्या को बीच मैदान में ले आयेगा.
भ्रष्टाचार के मुद्दे अब इस चुनाव में केंद्र में रहेंगे. जब तक सरकार और पार्टी अपने नामों के आगे चौकीदार चिपकाये रहेंगे इन मुद्दों से छुटकारा आसान नहीं होगा. राहुल गांधी ने गुजरात के चुनाव से चौकीदार अपने भाषणों में उठा लिया था और तब से शायद ही उनका कोई सार्वजनिक कार्यक्रम हो जिसमे उन्होने चौकीदार चोर है न कहा हो या इसका नारा न लगाया हो. अब मतदाता को दोनों पक्षों से इस चौकीदार का सामना करना होगा.
चौकीदार की अपनी सीमायें भी हैं.
बीजेपी बगैर ध्रुवीकरण के चुनाव जीत पाये ये मुश्किल काम है. पुलवामा और बालाकोट भी चौकीदार के कार्यक्षेत्र में कितना आ पाएगा ये देखना होगा.
जो भावना सेना, एयरफोर्स और शहीद पैदा करते है वो चौकीदार कर पाएगा कहना मुश्किल है. चौकीदार हिन्दू-मुस्लिम, तीन तलाक, गाय, राम मंदिर में क्या कर सकता है इसे सोचना तो अभी किसी चौकीदार के बूते का भी नहीं है.
विपक्ष के लिये भी चौकीदार के पास अच्छी खबर नहीं है. किसानों के मुद्दे, रोजगार, नोटबंदी, अर्थव्यवस्था का खस्ता हाल, दलित उत्पीड़न और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे भी ये चौकीदार खा सकता है.
दोनों पक्षों के पर्दे के पीछे काम करने वाले कम्यूनिकेशन एक्सपर्ट्स के लिये चौकीदार के इर्द गिर्द अपनी अपनी पार्टियों ने नेरेटिव को फिट करना और ऐसा कंटेन्ट बनाना कि उनका सिक्का चल निकले एक चुनौती भरा काम है. विपक्ष इसमे थोड़ा अव्वल रहेगा क्योकि उसे आरोप लगाने हैं और चौकीदार की खिचाई करने का ठीक ठाक मसाला है उसके पास.
संवैधानिक लोकतंत्र में चुनाव से सबसे ज़रूरी प्रक्रिया है. मतदाता अगले पांच साल के लिये उस सरकार को चुनता है जो अर्थनीति, विदेशनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य, राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक न्याय जैसे कठिन काम कर सके. यह एक गंभीर प्रक्रिया है मतदाता और राजनीतिक दल दोनों के लिये. इसमे कोई शक नहीं है कि मोदी ने चौकीदार को उछाल कर इस गंभीर काम को दो महीने चलने वाले एक चुट्कुले में बदल दिया है.
-प्रशांत टण्डन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)