मैं नहीं जानती आप रात के इस पहर में बस अड्डे पर किन मुश्किलों से जूझ रहे हो. तुम्हारी मेहनत के बूते पे चल रहे शहर से अचानक फ़ेंक दिए जाने के दर्द को मैं नहीं समझती हूँ.
मैं अपने घर जाने वाली बस पकड़ने के लिए कभी दिनों तक लाइन में नहीं खड़ी हुई. मैंने साफ़ पानी और खाने की कमी कभी नहीं देखी. मुझे कभी अस्पतालों में धक्के नहीं खाने पड़े.
आज भारत का मजदूर वर्ग जो स्थिति झेलने पर मजबूर है दरअसल ये एक बदतरीन प्रताड़ना है जो बदहाल हो चुकी अर्थव्यवस्था का नतीजा है.
मैं नहीं जानती कि जब सरकार बचाव के रूप में केवल ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की ही बात कर रही हो उस समय उस शख्स को कैसा महसूस होता होगा जिसे जिंदगी ने ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की पालना करने लायक भी नहीं छोड़ा हो? जबकि उसे ये मालूम हो कि ये महामारी उसकी जान ले लेगी!
मैं भारत की उस आबादी का हिस्सा हूँ जिसके पास देशभर में लगे लॉकडाउन में भी विलासिता से जी सकने की सुविधाएँ हासिल हैं.
मैं अपने कम्पाउंड में रहने वाले अपने दोस्तों और परिवार के लोगों से मिल सकती हूँ. लॉकडाउन से एक दिन पहले अपनी रसोई में ढेर राशन जमा कर सकती हूँ.
अभी भी मेरे घर के करीब दुकानों में मेरी ज़रूरत का समान उपलब्ध है. मैं हर घंटे अपने हाथ धोती हूँ उन्हें सेनेटाइज़ करती हूँ. मेरे पास अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता (Immunity) को बढ़ाने के लिए पौष्टिक खाना भी है.
अगर ये आपदा सिर्फ खाने और साफ़ पानी की ही होती तो मैं खाने के पैकेट, दाल-दलिया और पानी उपलब्ध कराने के लिए संघर्ष करती और आपके दर्द को हल्का करती.
लेकिन जब बात आती है झुग्गी और फुटपाथ पर रहने वालों के लिए बेहतर आसरा देने और आने जाने के साधन की तो मैं अपने आपको असहाय पाती हूँ.
मैं सो नहीं पा रही हूँ, मेरा दिमाग कई सवालों से जूझ रहा है; क्या हम सभी को अपने निजी वाहन लेकर लोगों को उनके घर तक पहुँचाने के लिए निकलना चाहिए? क्या सभी निजी यातयात कंपनियों को उनके लिए शुरू कर दें ताकि हमारे मज़दूर जल्दी और सुरक्षित अपने घर पहुँच सके? क्या हमें उनके बचाव और रहने के लिए निजी स्कूल, कॉलेज, खाली गौदाम और इस तरह की जगहें खोल देनी चाहिए?
हम सरकार से सवाल कर रहे हैं, आपका बकाया और आपका अधिकार देने के लिए, इस स्थिति में जो आपको चाहिए वो सब कुछ देने के लिए. इस वक्त जबकि हम ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ बरतने के लिए अपने घरों में बैठे है तो हम नहीं चाहते आप को मरने के लिए छोड़ दिया जाए.
हमारी सरकारें हमारी कोई बात तक नहीं सुनती है वरना हम सब सरकारों से यही मांग कर रहे हैं कि मजदूर वर्ग को सुरक्षित रखने के लिए वो सब तत्काल किया जाए जिसकी इस महामारी के वक्त ज़रूरत है.
हमारी सरकारी ये मानती है कि नागरिकों के पास सरकार के कामों और नीतियों पर बोलने के लिए कुछ नहीं है बल्कि उनका काम एक आभासी लोकतंत्र चलता रहे इसके लिए सिर्फ वोट डालने तक सीमित है और सरकार की बेवकूफियों और गलत नीतियों पर उन्हें मूकदर्शक बने रहना है.
कोरोना से लड़ने के लिए बनाई जा रही नीतियों में आम आदमी की ज़रूरतों का ख्याल रखा जाना ज़रूरी है. सरकार इस बात को सुनिश्चित करे कि जिनके पास रहने का कोई असरा है वो अपने घर में, सुरक्षित हो और किसी सुविधा से दूर न रहे. हम जब तक कोरोना से नहीं लड़ पाएंगे, जब तक हम सब के पास खाना पानी और एक सुरक्षित वातावरण न हो.
सरकारों को इस वक्त अपने स्कूल और विश्वविद्यालय उन लोगों के लिए खोल देने चाहिए जो पिछले दिनों बेघर हो गए. चाहे वो दिल्ली हिंसा के प्रभावित लोग हो या इस तरह की किसी घटना की वजह से बेघर होने वाले लोग हो या तत्काल नोटिस पर कर्फ्यू थोप दिए जाने के कारण बीच रास्तों में फंसे मज़दूर हो.
अब जबकि कोरोना वायरस का प्रभाव मुम्बई और दुसरे शहरों की झुग्गी बस्तियों में शुरू हो गया तो बहुत ज़रूरी है कि सरकार इन लोगों के लिए रहने का बेहतर इन्तिज़ाम करे.
सरकारें उन सभी लोगों को खाना और दूसरी ज़रूरी चीज़ें मुहय्या कराए जिनके पास पैसे नहीं है या उनके घर शहरों के किनारे पर हैं और वें हाशियों पर रहने को मजबूर हैं.
भारत को इजराइल की तरह लाइट मशीन गन नहीं चाहिए. इस वक्त भारत को अपने लोगों की देखभाल करने की ज़रूरत है. भारत को पौष्टिक खाना, साफ़ पानी, रहने के लिए बेहतर वातावरण और लोगों को घरों तक पहुंचा सकने वाले साधनों की सख्त ज़रूरत है.
इस भयानक महामारी के दौरान मज़दूरो की दर्दनाक कहानियों को बयान करती तस्वीरें, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के झूठे विकास और कोरोना से लड़ने की आडम्बरों से भरी नीतियों की पोल खोल रही है.
भारत के नागरिक समुदाय, संगठनों और कई गैर सरकारी संस्थाओं ने इस वक्त सरकार से बेहतर काम किए हैं. आपातकाल और महामारी जैसी स्तिथियों को संभाल पाने के लिए भारत को एक अनुशासित, बेहतर और साहसी लीडरशिप चाहिए जो लोगों को सुरक्षित रख सके.
मीलों दूर अपने घर को ले जानी वाली बस को पकड़ने के लिए दोड़ते हुए जब मैं आपको देखती हूँ तो मन बेहद विचलित होता है और दिल दर्द से चीख उठता है.
बिना किसी पूर्वजानकारी के आपकी आँखों से बहते हुए आंसूओं को मैं देख सकती हूँ. मैं आपकी आँखों में उस क्रांति की चमक भी देख रही हूँ जिससे आप इस वक्त गुज़र रहे हैं. ये सब ख़त्म होने के बाद अगर हम सब बच जाएंगे तो मैं इन्तिज़ार करुँगी आपकी कहानियों का. मैं इन्तिज़ार करुँगी आपकी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हुई क्रांति की कहानी सुनने का.
आने वाले दिनों में हम एक बेहतर सामाजिक तानाबाना बनाने के लिए काम करेंगे ताकि इस तरह की भयानक स्थिति से बेहतर तरीके से निपटा जा सके.
मैं आप लोगों के लिए दुखी हूँ लेकिन मेरा मन आप सभी को इस दुर्भाग्यपूर्ण और मुश्किल वक्त में शांतिपूर्ण तरीके से निपटने की आपकी कोशिशों को सलाम करता है.आप सभी को इश्वर इस आपदा से महफूज़ रखे.
हम ज़रूर जल्द ही इस मुश्किल घड़ी से बाहर आ जाएंगे. लेकिन सब गुजरने के बाद क्या होगा अगर मज़दूर लोग जो कुछ एक शहर ने उनके साथ किया उसके नतीजे में कभी वापस शहर ही ना आए? शहर का अच्छा भाग्य, मजदूरों की मौजूदगी पर ही निर्भर करता है!
-सिफ़वा एम॰ए॰
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पोलिटिकल स्टडीज में एक शोधार्थी हैं)
अंग्रेज़ी से अनुवाद: अज़हर अंसार