हाशिमपुरा नरसंहार: सरकारी कत्लेआम के 33 साल बाद…
आजाद भारत में ऐसा न इससे पहले हुआ, न उसके बाद. संसद से सिर्फ 80 किमी दूर मेरठ के हाशिमपुरा में पीएसी के जवानों ने 42 मुस्लिम नौजवानों को मारकर गंग नहर और हिंडन में फेंक दिया. इस जनसंहार को 31 साल पूरे हो रहे हैं. उस समय के देश के आंतरिक सुरक्षा राज्य मंत्री पी. चिदंबरम बाद में देश के गृह मंत्री भी रहे.
इस बीच लखनऊ और दिल्ली में ज्यादातर सेकुलर कही जाने वाली सरकारें थीं. लेकिन अब तक किसी को एक दिन की भी सजा नहीं हुई थी. अब से 6 साल पहले हमारी टीम ने हाशिमपुरा कांड के पीड़ितों और उनके परिवारों से मुलाकात की थी और उनका दर्द जाना था. पेश है उस रिपोर्ट के कुछ खास अंश.
अक्सर पूछा जाता हैः ”हाशिमपुरा नरसंहार को कितने साल हो गए.” जवाब हैः ”जितनी उम्र जैबुन निसा की बिटिया की है.”
जैबुन निसा हाशिमपुरा में अपनी मां और दो बेटियों के साथ भाई के घर में रहती हैं. दो कमरों के बीच सेहन वाले घर में जैबुन की बुजुर्ग मां चारपाई पर लेटी हैं. उनके घर में कोई मर्द सदस्य नहीं है.
जैबुन कहती हैं, ”उस दिन अलविदा जुमा (अरबी महीने रमजान का आखिरी जुमा) था. हमारी तीसरी बेटी (उज्मा) उसी रोज पैदा हुई थी. उसके अब्बा (इकबाल) अपनी बिटिया को देखकर नमाज पढ़ने गए थे लेकिन फिर नहीं लौटे.”
22 मई, 1987 को सेना ने जुमे की नमाज के बाद हाशिमपुरा और आसपास के मुहल्लों में तलाशी, जब्ती और गिरफ्तारी अभियान चलाया था. उन्होंने सभी मर्दों-बच्चों को मुहल्ले के बाहर मुख्य सड़क पर इकट्ठा करके वहां मौजूद प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबलरी (पीएसी) के जवानों के हवाले कर दिया.
यूं तो आसपास के मुहल्लों से 644 मुस्लिमों को गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उनमें हाशिमपुरा के 150 मुस्लिम नौजवान शामिल थे.
इकबाल समेत 50 नौजवानों को पीएसी के ट्रक यूआरयू 1493 पर लाद दिया गया, जिस पर थ्री नॉट थ्री राइफलों से लैस पीएसी के 19 जवान थे. इन जवानों ने 22 मई की काली रात को नाजी जुल्म की भी हदें पार कर दीं.
हाशिमपुरा के पांच नौजवानों को छोड़कर ज्यादातर नौजवानों के लिए अलविदा जुमे की नमाज आखिरी साबित हुई. उन्होंने सारे नौजवानों को मारकर मुरादनगर की गंग नहर और गाजियाबाद में हिंडन नहर में फेंक दिया.
हाशिमपुरा के पड़ोसी मुहल्ले जुम्मनपुरा में खराद मशीन चलाने वाले इकबाल के सिर में गोली मारी गई और उनकी लाश हिंडन में मिली.
इसके अलावा, हिरासत में भी पुलिस की पिटाई से कम से कम आठ लोगों-जहीर अहमद, मोईनुद्दीन, सलीम उर्फ सल्लू, मीनू, मोहम्मद उस्मान, जमील अहमद, दीन मोहम्मद और मास्टर हनीफ-ने दम तोड़ दिया.
आजादी के बाद यह देश में हिरासत में मौत का सबसे बड़ा मामला है. 1984 के सिख विरोधी दंगे और 2002 में गुजरात नरसंहार में पुलिस की भूमिका उकसाने वाली और दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई न करने की थी लेकिन उन दोनों मामलों में मुकदमे चले और काफी दोषियों को सजा सुनाई जा चुकी है.
दूसरी ओर, हाशिमपुरा नरसंहार के 25 साल पूरे होने को हैं और अभी तक एक भी व्यक्ति को दोषी करार नहीं दिया गया है.
हम फिर भी जिए जाते हैं
राजपूत मुस्लिम, इकबाल की विधवा जैबुन बताती हैं, ”शादी के पांच साल साथ रहने के बाद 25 साल से तन्हा जिंदगी बिता रही हूं.” पिछले ढाई दशक से ‘टेंशन’ में जी रही इस बेवा की जख्मी जिंदगी में रह-रहकर दर्द के पैबंद लगते रहते हैं.
राज्य सरकार ने कुल पांच लाख रु. का मुआवजा दिया, लेकिन उसका बड़ा हिस्सा ससुराल में ही बंट गया और ससुराल से निकाले जाने के बाद सिलाई से गुजर-बसर करने वाली जैबुन ने अपनी तीन बेटियों-नाजमीन (जिसकी शादी हो गई), यास्मीन और उज्मा को पढ़ाया. लेकिन उनके पास इतना पैसा नहीं है कि यास्मीन और उज्मा को 10वीं के बाद स्कूली पढ़ाई करा सकें.
भाई ने कुछ साल के लिए घर दिया है पर उसे एक रोज खाली करना पड़ेगा.
अपने सिर से वालिद का साया उठने के अलावा उज्मा को एक और रंज हैः ”लोग कहते हैं, जब यह पैदा हुई तो इसके पापा चले गए. इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं था.” लेकिन कसूरवार राज्य व्यवस्था को इसका कोई मलाल नहीं है.
दर्द भरी बस्ती
पुराने मेरठ का हाशिमपुरा मुहल्ला मानो पीएसी के गुनाहों से कराह रही दर्दभरी बस्ती है. 1933 में मुफ्ती हाशमी के आबाद किए गए इस मुहल्ले में करीब छह सौ घर और तीन हजार लोग हैं.
तीन तरफ से हिंदू आबादी से घिरे इस मुहल्ले को दो रास्ते मुख्य सड़क से जोड़ते हैं. अस्सी फीसदी बुनकरों की आबादी वाले हाशिमपुरा में लगभग हर परिवार के पास एक दर्दभरी दास्तान है.
चालीस पार के लगभग हर मर्द के बदन पर चोट के निशान हैं, जो सरकार के अपने ही लोगों पर जुल्म की कहानी बयान करते हैं.
फरवरी 1986 में दिल्ली और लखनऊ, दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी, अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खोले जाने के बाद देशभर में दंगे शुरू हो गए और मेरठ खास तौर पर हिंसा का शिकार हुआ. हाशिमपुरा नरसंहार हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं बल्कि पीएसी की निरंकुशता की कहानी है.
बोल कि लब आजाद हैं तेरे
जैबुन की गली के नुक्कड़ पर 40 वर्षीय जुल्फिकार नासिर रहते हैं. मोहम्मद उस्मान, मोहम्मद नईम, बाबूदीन, मुजीबुर्रहमान और नासिर गोली मारे जाने और नहर में फेंके जाने के बावजूद जिंदा बच गए.
नासिर याद करते हैं, ”हमें मगरिब की नमाज (सूरज डूबने के बाद) के वक्त खुले ट्रक में इस तरह बैठाया कि बाहर से कोई नहीं कह सकता था कि उसमें कोई बैठा है. मुंडी नीचे करा दी गई.
रात को बेगम ब्रिज, दिल्ली रोड से होते हुए मुरादनगर की गंग नहर पर ले गए. नौ बजे होंगे. ट्रक को नहर के किनारे लगाया और सारे पीएसी के जवान नीचे उतर आए. उन्होंने पिछला हिस्सा खोला और सबको उतारने लगे. दो जवानों ने सबसे पहले मोहम्मद यासीन की दोनों ओर से बांहें पकड़ी, तीसरे ने उसे गोली मारी और नहर में फेंक दिया.
इसी तरह मोहम्मद अशरफ को मारकर फेंक दिया. तब तक लोगों को अंदाजा लग गया था कि पीएसी वालों का क्या इरादा है. यह देखकर सारे नौजवान गिड़गिड़ा रहे थे, जान की भीख मांग रहे थे, जबकि वे लोग गाली दे रहे थे. फिर मुझे भी गोली मारी और फेंक दिया. मुझे होश नहीं था कि मैं जिंदा हूं या मर चुका हूं. मैं बहते हुए किसी तरह नहर के किनारे पहुंचा और घास पकड़कर लटक गया. गोलियों और कराहने-चीखने की आवाजें आ रही थीं.
जब ट्रक चला गया और चारों ओर सन्नाटा छा गया तो मैं बहुत देर बाद निकला. मुझे ऊपर चार लोग मिले.
एक था कमरुद्दीन. उसे तीन गोलियां लगी थीं, आंतें बाहर आ गई थीं. मैं उसे पुल पर लाया और नल से पानी पिलाया. उसी आम के पेड़ के पास जहां हमें गोली मारी गई थी, कुछ लोग आ गए.
लोगों ने पूछा, ‘तुम कौन हो.’ उन्हें यह नहीं बताया कि हमें पीएसी के जवानों ने मारा है. हमने बताया कि स्कूटर से आ रहे थे, बदमाशों ने लूटपाट की और गोली मार दी. लेकिन वे लोग समझ गए होंगे.
उन्होंने कहा, ‘तुम यहीं ठहरो. बाबा को बुलवाता हूं कि वे पट्टी कर देंगे.’ पर मैं भांप गया, वह दूसरे आदमी से बोला था कि पुलिस को बुलाओ. कमरुद्दीन बोला, ‘तू भग जा, मैं तो बचने का नहीं, मेरे चक्कर में तू भी मारा जाएगा.’ तब मैं वहां से भागा.
मैं वहां से भागकर पास में ही एक पेशाबघर में छुप गया. अगले दिन करीब शाम चार बजे तक उसी में रहा. वहां से निकलकर मैंने पानी पिया. मेरी दशा ऐसी थी कि लोग मुझे पागल समझ्कर नजरअंदाज कर रहे होंगे.”
नासिर मुरादनगर में अपने किसी परिचित के यहां चले गए.
नासिर के वहां से भागने और दिल्ली में तत्कालीन सांसद शहाबुद्दीन के घर पहुंचने की लंबी दास्तान है.
तत्कालीन सांसद चंद्रशेखर की प्रेस कॉन्फ्रेंस में नासिर ने हाशिमपुरा नरसंहार की हकीकत दुनिया को बताई.
इससे पहले हाशिमपुरा के लोगों को लग रहा था कि उनके अजीज लोग किसी जेल में बंद होंगे.
हादसे के बाद रेफ्रिजरेशन और एयरकंडिशनिंग में डिप्लोमा हासिल करने वाले नासिर आज अपने पिता की कंपनी सुप्रीम इंजीनियरिंग वर्क्स संभालते हैं, जो ट्यूबवेल स्पेयर पार्ट्स बनाती है.
मौत को गच्चा देने वाले
उस नरसंहार में जिंदा बचे लोगों की कहानी लगभग एक जैसी है. लेकिन बाकी सबकी माली हालत बेहद खराब है. स्थायी रूप से विकलांग हो चुके 55 वर्षीय मोहम्मद उस्मान फल का ठेला लगाते हैं.
अब शहर के कांचा का पुल इलाके में रहने वाले उस्मान बताते हैं, ”रमजान का महीना था लेकिन मैंने उस दिन रोजा नहीं रखा था. आठ दिन से कर्फ्यू था, आटा, दूध, घर में कुछ भी नहीं था (यह कहते हुए उनका गला भर आता है और रोने लगते हैं). कर्फ्यू लगा था, बाहर कैसे निकलते.”
वे बताते हैं, ”जब हत्यारों ने तीन लोगों को मारकर फेंक दिया तो हमें लग गया कि वे सबको इसी तरह मारकर फेंक देंगे. सबने आपस में कानाफूसी की और कहा कि ‘अल्लाह का नाम लो और एक साथ इनके ऊपर टूट पड़ो.’ लेकिन जैसे ही खड़े हुए उन्होंने ट्रक में ही गोलियों की बरसात कर दी. एक-एक गोली कई लोगों को चीरकर निकल गई.”
उनकी कमर और पैर में गोली लगी थी. वे नहर से बाहर निकलकर बैठे थे कि ”रात के ढाई-तीन बजे एक पुलिसवाला जीप लेकर आया और बोला, ‘बेटा, पीएसी का नाम न लेना. हम तुझे अस्पताल ले जा रहे हैं. नाम लिया तो तुम्हें वहीं जहर का इंजेक्शन दे देंगे, तू पांच मिनट में खत्म हो जाएगा.
यह कहना कि मेरठ में बलवा हो गया था और मुझे गोली लग गई थी और किसी चीज में डालकर लाए और मुझे पानी में फेंक दिया. मैं पानी में से निकला और पुलिस ने मेरी जान बचाई. यह बयान दिया तो तेरी जान बच जाएगी.’
मैंने अपनी जान बचने के लिए यह झूठा बयान दिया, घर आकर सही बात बताई.”
जिस व्यक्ति को गोली नहीं लगी वह थे 43 वर्षीय मोहम्मद नईम. पहले रोड़ी-बजरी और बिल्डिंग मटीरियल का कारोबार करने वाले नईम ने हत्यारों से हाथापाई की और मार खाने के बाद ट्रक में बेहोश हो गए. साथियों के खून से सने नईम को मृत समझ्कर गंगनहर में फेंक दिया गया था. मुकदमे की पैरवी करने में इतना वक्त और पैसा जाया हो गया कि अब मजदूरी का जो भी काम मिल जाए, कर लेते हैं.
वे कहते हैं, ”इतना पैसा नहीं है कि कोई काम शुरू कर सकूं. रात को रिक्शा भी चला लेता.” हाशिमपुरा में ही दो कमरे में से एक कमरे को 500 रु. महीने किराए पर उठा दिया है और एक कमरे में अपने छह बच्चों और पत्नी के साथ रहते हैं.
हाशिमपुरा के पड़ोसी मुहल्ले इमलियान के ही एक करघे में मजदूरी करने वाले 44 वर्षीय मुजीबुर रहमान मूलतः बिहार के दरभंगा जिले के रहने वाले हैं. गंग नहर पर उन्हें गोली मारी गई थी जो सीना चीरकर पीछे से निकल गई.
दो बच्चों के पिता इस प्रवासी मजदूर का कहना है कि हमें आज तक कुछ नहीं मिला. उन्होंने इस मामले की प्राथमिकी मुरादनगर थाने में दर्ज कराई.
इस मामले में प्राथमिकी दर्ज कराने वाले दूसरे व्यक्ति भी संयोगवश बिहारी प्रवासी मजदूर हैं-बाबूदीन.
बाबूदीन अब भी हाशिमपुरा के ही करघे में मजदूरी करते हैं. मूलतः दरभंगा के रहने वाले 42 वर्षीय बाबू को गाजियाबाद में हिंडन नदी में फेंका गया था.
दो गोलियां खाने के बावजूद जिंदा बचे इस शख्स ने नदी में फेंके जाने के बाद ऐसे दम साध लिया कि हत्यारों को भी लगा कि वह मर गया.
उसे गाजियाबाद के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय की टीम ने निकाला था. राय वर्धा की महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे.
बाबू ने गाजियाबाद के लिंक रोड थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई. राय ने उन्हें और रहमान को मोहन नगर अस्पताल में भर्ती करा दिया और इलाज के बाद पुलिस वालों के संरक्षण में उनके पैतृक गांव भेज दिया.
उनका कहना है, ”उस रोज बिहार के तीन मजदूर मारे गए थे-कौसर अली, अजीम (दोनों दरभंगा के) और हनीफ (मधुबनी). उन लोगों में से किसी के परिवार को मुआवजा नहीं मिल सका.”
जब तक हलाल न करे मुझ बेगुनाह को
सेना ने उस रोज जितने लोगों को पुलिस के हवाले किया, उनमें से ज्यादातर को जेल भेज दिया गया. लेकिन उससे पहले सिविल लाइन में उनकी इतनी पिटाई की गई कि कम-से-कम तीन की वहीं मौत हो गई, और पांच ने फतेहगढ़ जेल में दम तोड़ दिया.
उन्हीं में से एक थे मोहम्मद उस्मान, जिनकी विधवा 65 वर्षीया हनीफा कहती हैं, ”तारीख पे तारीख लगती है, लेकिन अभी तक इंसाफ नहीं मिला.” उस्मान के साथ गिरफ्तार हुए उनके पड़ोसी 50 वर्षीय मोईनुद्दीन बताते, ”पुलिसवालों ने उनकी जांघ रॉड मारकर तोड़ दी थी.”
हाशिमपुरा में हर शख्स के पास अपनों से बिछुड़ने या पुलिस की बर्बरता की कोई न कोई कहानी है. 55 वर्षीय यामीन के दो भाई और तायाजाद भाई मारा गया.
वे बताते हैं, ”उनकी लाश नहीं मिली, बस कपड़े से शिनाख्त हुई.” इतने समय से मामला खिंचने पर उनका कहना है, ”सरकार हमें हिंदुस्तानी नहीं समझ्ती, वरना अब तक फैसला हो गया होता.”
मुहल्ले की मस्जिद के इमाम मोहम्मद इस्राफील के साथ गली में चहलकदमी कर रहे 44 वर्षीय रियाजुद्दीन बताते हैं, ”सारे नौजवानों को गिरफ्तार कर लिया था और गंदी-गंदी गालियां बकते हुए धुनाई की गई.”
वे अपने जबड़े और माथे पर निशान दिखाते हुए कहते हैं, ”कह रहे थे, ‘लोगे बाबरी मस्जिद? यह लो इमरान खान का छक्का.’ लाठी और हॉकी के डंडे से बदन के किसी भी हिस्से पर बेतहाशा मार रहे थे.”
वहीं मौजूद 60 वर्षीय आबिद इंडिया टुडे की टीम को अपने बड़े भाई 70 वर्षीय अब्दुर रशीद के सिर पर गहरी चोट का निशान दिखाते हैं.
मुहल्ले के ही अब्दुल जब्बार बताते हैं, ”फतेहगढ़ जेल में जैसे ही ले जाया गया, सारे कैदी हम पर ऐसे टूट पड़े मानो उन्हें पहले ही हमें मार डालने का हुक्म दिया गया हो. पहले पुलिस ने पीटा, फिर कैदियों ने मारा. पानी नहीं मिल रहा था, हम अपनी बनियानें निचोड़कर घायलों को पानी पिला रहे थे.” फतेहगढ़ जेल में भी कई लोगों ने दम तोड़ दिया.
चौथाई सदी बीतने के बावजूद इस घटना को स्थानीय लोग भूल नहीं पाए हैं. 25 वर्षीय मोहम्मद नवेद ने कयामत की उस रात के बारे में सुन रखा है. उन्हें इस घटना का एक-एक ब्यौरा मालूम है.
मूलतः बिहार के रहने वाले इमाम इस्राफील पहले तो इस घटना के बारे में कुछ भी बोलने से इनकार करते हैं और कहते हैं, ”वक्त सारे जख्मों को भर देता है. अल्लाह को यही मंजूर था.” लेकिन थोड़ी देर बात कहते हैं, ”जो कौम अपनी तवारीख भूलती है, उसे दुनिया भुला देती है.”
हाशिमपुरा में एक नई पीढ़ी आ गई है, सरकार ने उनके मृतक रिश्तेदारों को भले ही भुला दिया हो लेकिन उसने अपने समुदाय की तारीख को नहीं भुलाया है.
(31 साल बाद, अक्टूबर 2018 को दिल्ली हाईकोर्ट में, दोषीयों को उम्रक़ैद की सजा सुनायी गयी)
(Ansar Indori की फेसबुक वॉल से साभार)
(फ़ोटो- साभार प्रवीण जैन)
(साभार-इंडिया टुडे/आजतक)