जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रसंघ चुनाव के दिन थे तभी डेनिम शर्ट पहने, अपने साथियों के साथ, जेएनयू के एक नेत्रहीन छात्र, शशि भूषण पांडे का फोन पर रिकॉर्ड हुआ एक गाना वायरल हुआ जिसको चौतरफ तारीफ मिली। पांडे गा रहे थे,
मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता…
इस वीडियो ने कुछ महीनों पहले सोशल मीडिया पर हजारों शेयर के साथ आग लगा दी और पांडे रातोंरात सनसनी बन गए, पांडे ने जो नज्म सुनाई वो कविता पाकिस्तानी कवि हबीब जालिब की “दस्तूर” है। हाल में जेएनयू में छात्रों विरोध प्रदर्शन के दौरान यह कविता छात्र आंदोलनों की थीम सॉन्ग बनकर उभरी।
दिलचस्प बात यह है कि, लाहौर के मोची गेट पर जलिब द्वारा सुनाई गई यह कविता मैं नहीं जानता, मैं नहीं मानता (मैं स्वीकार करने से इनकार करता हूं) पाकिस्तान में पहले सैन्य शासन के दौरान लोकतंत्र समर्थकों का एंथम बन गया था। इसी से ही हबीब जालिब ‘लोगों के कवि’ बनकर उभरे। सरल और सादे शब्दों के इस्तेमाल से बनी कविता लोगों की आवाज बन गई।
जालिब कैसे “जनता के कवि’ बने ?
1959 में, जनरल अयूब खान ने पाकिस्तान में मिलिट्री शासन घोषित किया। लगभग सभी मीडिया हाउस की हालत खराब थी, सेंसरशिप अपने चरम पर थी। इन सब के बीच, पाकिस्तान रेडियो ने एक कवि सम्मेलन आयोजित किया।
अधिकांश कवियों ने पाकिस्तान के बारे में एक ग़ज़ल या कविता सुनाई, इसके बाद जो कवि बोलने आया वो हर किसी के लिए अनजान था, बोलने लगा तो स्क्रिप्ट से भटक गया और बोला,
कहीं गैस का धुंआ है,
कही गोलियों की बारिश,
शब-ए-अहद-ए काम निगाहई
तुम्हे किस तरह सुनाएं..
इसी दौरान रेडियो स्टेशन पर छापा मारा गया और कवि सम्मेलन को बीच में ही रोक दिया गया, अगले दिन स्टेशन डायरेक्टर के साथ कवि को गिरफ्तार कर लिया गया।
पाकिस्तान में हबीब जालिब, शायर-ए-अवाम इसी तरह लोगों के सामने आया। जालिब के ऊपर इसके बाद पब्लिक में किसी भी कार्यक्रम में भाग लेने पर रोक लगा दी गई। हालांकि, इसके बावजूद भी उन्हें दस्तूर के जरिये जनरल अयूब खान के नए संविधान को खुले तौर पर चुनौती देने से कोई नहीं रोक पाया। फिर उन्होंने एक रैली में गाया,
दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता….
हबीब जालिब का जन्म 24 मार्च 1928 को अविभाजित भारत के पंजाब के होशियारपुर में एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ था। उनका परिवार 1943 में दिल्ली आ गया ताकि उनके बच्चे अच्छी तालीम हासिल कर सके। हबीब अपने बड़े भाई मुश्ताक मुबारिक के साथ दिल्ली के साहित्यिक माहौल से काफी प्रभावित हुए और उनके पिता शहर में एक छोटा धंधा लगाने में कामयाब रहे।
हालाँकि, 1947 में विभाजन के बाद जालिब के पूरे परिवार को कराची में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा, जहां से उनका गरीबी के एक और दौर में सफर शुरू हुआ। जालिब प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन का भी हिस्सा थे जिनमें फैज़ अहमद फैज़, सआदत हसन मंटो, अहमद फ़राज़ और हमीद अख्तर आया करते थे।
जालिब एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी थे और जीवन भर कम्युनिस्ट आदर्शों का समर्थन किया। वह पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे, जिसे 1951 में मेजर जनरल अकबर खान और अन्य वामपंथी राजनीतिज्ञों द्वारा विफल तख्तापलट के बाद प्रतिबंधित कर दिया गया था।
लोकतंत्र को बहाल करने की लड़ाई में कई बार जेल गए
पाकिस्तान में लोकतंत्र को बहाल करने की उनकी कोशिश में, 1964 के चुनावों में लोकतंत्र समर्थक ताकतों और जनरल अयूब खान के शासन के बीच युद्ध के दौरान, जालिब फातिमा जिन्ना (-मुहम्मद अली जिन्ना की बहन) के साथ शामिल हो गए। लोग फातिमा जिन्ना और जालिब को सुनने के लिए झुंड में आते थे।
हालांकि, जिन्ना चुनाव हार गए थे। जनरल अयूब चुनाव जीते लेकिन उनकी जीत के कारण 1968-69 का विद्रोह हुआ और जनरल याह्या खान ने सरकार पर नियंत्रण कायम किया। जालिब अगले तानाशाह की आलोचना करने से भी पीछे नहीं हटे। उन्होंने याहया खान की एक तस्वीर को देखते हुए, तख्त नशीं था शीर्षक से एक कविता गाई।
तुम से पहले वो जो इक शख्स यहां तख्त ए नशीं था,
उसको भी अपने खुदा होने पर उतना ही यकीं था.
हबीब जालिब को सैन्य कार्रवाई की आलोचना करने के लिए कई बार जेल में कैद किया गया। जालिब इसके बाद पाकिस्तान के चौथे राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ रहने लगे, जिन्होंने जनरल याह्या खान से पद ले लिया था। जालिब ने पाकिस्तान और लोकतंत्र समर्थक अभियानों के बारे में भुट्टो के समाजवादी विचारों का समर्थन किया। उन्होंने यहां तक कि भुट्टो की रैलियों में अपनी कविताएं सुनाई।बाद में, जालिब को पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) में शामिल होने के लिए कहा, जिसका उन्होंने जवाब दिया,
“कभी समंदर भी दरिया में उतरे हैं”!
इसके बाद भी हबीब जालिब ने पाकिस्तान में कई जेलों के लिए कई चक्कर लगाए। जो कोई भी शासक था, चाहे वह सेना का तानाशाह हो या लोकतांत्रिक रूप से चुना गया शासक, जालिब ने कभी भी आलोचना करने का मौका नहीं गंवाया। 13 मार्च 1993 को हबीब जालिब का लाहौर में निधन हो गया और उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, निशान-ए-इम्तियाज मरणोपरांत मिला।