अंग्रेजों ने हमारे देश में 1894 में भूमि अधिग्रहण के लिए कानून बनाया और अगले 110 साल तक वही कानून चलता रहा!
देश आज़ाद हो गया लेकिन किसानो की ज़मीनों को अधिग्रहीत करने की प्रक्रिया और कानून वही चलते रहे और सरकारों के जो मन आया वैसे किसानों की जमीनों को अधिग्रहित करके पूंजीपतियों को देते रहे!
2013 में जब यूपीए-2 की सरकार थी तब देश में भूमि अधिग्रहण कानून की जगह भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार और पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना अधिनियम 2013 लाया गया!
जब ये कानून लाया गया था तब भारतीय जनता पार्टी ने भी इस कानून का समर्थन किया था. ये कानून 1 जनवरी 2014 से संपूर्ण देश में लागू हो गया था. ये कानून अस्तित्व में आया ही था कि दिसंबर 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने किसानों के हित में बनाये गए कानून को बदलते हुए अध्यादेश (Ordinance) जारी कर दिया!
भारत सरकार ने इस कानून को बदलने के लिए सभी तरह की घटिया से घटिया राजनीति की और बदलने के हर संभव प्रयास किये. इस कानून को बदल ने के लिए मोदी सरकार 3 बार अध्यादेश लेकर आई और 2 बार इस विधेयक को संसद में पेश किया गया और इस कानून को जिस संसद की संयुक्त समिति को भेजा गया था उसके कार्यकाल को भी बढ़ा दिया गया (एक्सटेंशन दे दिया गया) और इस विधेयक को भाजपा सरकार ने लोकसभा से तो पास भी करा लिया था लेकिन अंत में उसी विधेयक को देश भर के किसानों के दबाव की बजह से वापस लेना पड़ा!
2013 के कानून और बाद में लाये गए अध्यादेशों में क्या प्रमुख अंतर था वह देखिये और आप ही फैसला करिए कि नरेन्द्र मोदी किसान विरोधी है या नहीं?
नया कानून किसानों के हित में था और मोदीजी के लिए किसानों से जमीन छीनकर अपने पूंजीपति दोस्तों को देना भारी हो रहा था इसलिए भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्था पन (संशोधन) विधेयक, 2015’ लाया गया. उस समय मोदी सरकार के द्वारा लिए गए इस किसान विरोधी फैसले का जमकर विरोध हुआ. केवल विपक्ष ही नहीं कुछ भाजपा के सहयोगी दलों ने भी खुलकर विरोध किया था.
इस विधेयक का पूरे देश में विरोध होने के कुछ प्रमुख कारण थे क्योंकि इस विधेयक में भूमि के उपयोग के आधार पर पांच विशेष श्रेणियां बनाई गईं थीं और इन श्रेणियों को भूमि अधिग्रहण अधिनियम के कई प्रावधानों के दायरे से बाहर कर दिया गया.
2013 के कानून में यह भी प्रावधान था कि कोई भी जमीन सिर्फ तभी अधिग्रहीत की जा सकती है जब इस अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले कम-से-कम 80 प्रतिशत जमीन मालिक इसके लिए अनुमति दें. इस प्रावधान को किसानों के लिए सबसे हितकारी माना गया था.
लेकिन संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया था. साथ ही भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवारों और उन पर पड़ने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के मूल्यांकन का जो प्रावधान 2013 के कानून में था, उसे भी इस विधेयक से हटाया दिया गया.
2013 के कानून में यह भी प्रावधान था कि यदि अधिग्रहण के पांच साल के भीतर ज़मीन पर वह कार्य शुरू नहीं किया जाता जिसके लिए वह जमीन अधिग्रहीत की गई है तो वह ज़मीन उसके मूल मालिक को वापस कर दी जाएगी. इस प्रावधान को भी बेअसर करने के उपाय भी संशोधन विधेयक में किये गए थे.
दरअसल 2013 के कानून में प्रावधान था कि यदि भूमि अधिग्रहण के दौरान सरकार कोई बेमानी या अपराध करती है तो संबंधित विभाग के अध्यक्ष को इसका दोषी माना जाएगा इसलिए दोषी अधिकारीयों को बचाने की गली भी निकालने का प्रयास किया गया.
जो संशोधन विधेयक लाया गया उसमें इस प्रावधान को बदलकर यह व्यवस्था बनाई गई कि अपराध के आरोपित किसी सरकारी अधिकारी पर सरकार की अनुमति के बिना कोई मुकदमा दायर नहीं किया जा सकेगा.
इस प्रकार के कई पहलुओं के चलते मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण पर सब तरफ से घिर गई. देश के लोगों के बीच यह संदेश जा चुका था कि भूमि अधिग्रहण कानून में जो संशोधन मोदी सरकार करना चाहती है वे पूरी तरह से किसान-विरोधी और कॉरपोरेट के हित साधने वाले हैं.
भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के चलते मोदी सरकार की छवि लगातार गिरती जा रही थी फिर भी सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं थी. इसके कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार है- पहला तो यह कि यदि अपने कार्यकाल के पहले ही साल में मोदी सरकार अपने फैसले से पीछे हट जाती तो उसकी ‘मजबूर नेता और दृढ नेतृत्व’ की छवि को बड़ा झटका लग सकता था
दूसरा कारण यह था कि 2013 के क़ानून में संशोधन किये बिना किसानों से जमीन छीनना बेहद मुश्किल था और चुनाव के दौरान मोदी जी द्वारा जो अपने कॉर्पोरेट के दोस्तों से वादे किये थे उनको निभाना भी जरुरी था.
इसलिए मोदी सरकार ने इस विधेयक को कानून का रूप देने के लिए कभी विरोधियों को मनाने की कोशिशें की तो कभी संसद में इसका जमकर बचाव किया, कभी सीधे किसानों को अपने पक्ष में करने के प्रयत्न किये तो कभी एक के बाद एक अध्यादेश लाकर भूमि अधिग्रहण को अपने अनुकूल बनाने की हर संभव कोशिशें की.
मोदी सरकार के इन कुत्सित प्रयासों और अध्यादेशों का यह सिलसिला चलता रहा और तब जाकर थमा जब बिहार में विधानसभा के चुनाव आ गये. भाजपा जानती थी कि बिहार में ‘किसान-विरोधी’ होने की पहचान उसके लिए खतरनाक साबित हो सकती है.
बिहार चुनावों से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में लोगों को बताया कि भूमि अधिग्रहण पर अब उनकी सरकार चौथा अध्यादेश नहीं लाएगी. बिहार के मतदाताओं और मुख्यतः किसानों को लुभाने के लिए मोदी सरकार ने जब यह कदम उठाया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
राज्यसभा में बहुमत न होने के चलते भाजपा के लिए वैसे भी यह असंभव ही था कि वह इस विधेयक को कानून की शक्ल दे सके. हालांकि संयुक्त सत्र बुलाने का एक अंतिम विकल्प भाजपा के पास जरूर खुला था जो इस विधेयक को कानून में बदल सकता था.
लेकिन देश में कई राज्यों में चुनाव आने की बजह से भाजपा के लिए ऐसा कोई कदल उठाना आत्मघाती साबित हो सकता था इसलिए संसद का संयुक्त सत्र नहीं बुलाया गया.
देश के अलग-अलग भागों में देख सकते हैं किस प्रकार सरकारों ने किसानों की जमीनें छीनकर पूंजीपतियों की दी हैं और किसानों को कुछ नहीं मिला लेकिन पूंजीपतियों ने लाखों करोड़ रुपये कमा लिए.
राजस्थान में झुनझुने जिले के नवलगढ़ में पिछले 8 वर्षों से जमीन अधिग्रहण के खिलाफ धरना चल रहा है जहाँ पर सीमेंट कंपनियों को हजारों बीघा उपजाऊ जमीन दे दी गई लेकिन किसानों के सहस की बजह से उसका कब्ज़ा लेने में ये कम्पनियाँ नाकामयाब रही हैं उसी प्रकार महवा- भराला नीमा का थाना, पाटन और कई अन्य जगहों पर लोग अपनी जमीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं. देश के विभिन्न भागों में लोग संघर्ष करते आ रहे हैं.
सरकार में आने कुछ महीने बाद ही किसान विरोधी अध्यादेश ले आना नरेन्द्र मोदी किसान विरोधी तो हैं ही कॉर्पोरेट परस्त भी हैं, अब चुनाव से पहले किसान हितैषी होने की केवल नौटंकी की जा रही है जिसमें उनको 17 रुपये रोज देने का ऐलान नरेन्द्र मोदी ने किया है जो बहुत शर्मनाक और किसान विरोधी है.
-मुकेश निर्वासित
(लेखक समाजिक कार्यकर्ता हैं)