राजस्थान की हॉट सीट बाड़मेर की सियासत, यहां रेतीली हवाओं में भी बग़ावत बहुत है!

आइए, जानें बाड़मेर की सियासत को, जिसकी रेतीली हवाओं में भी बग़ावत बहुत है। इस बार यहां त्रिकोणीय मुकाबला बना हुआ है। यहां से भाजपा से केंद्रीय मंत्री कैलाश चौधरी , कांग्रेस से उम्मेदाराम बेनीवाल और निर्दलीय रविंद्र सिंह भाटी मैदान में हैं। उम्मेदाराम ने विधानसभा चुनाव आरएलपी के टिकट पर लड़ा था और अभी हाल ही में आरएलपी छोड़कर कांग्रेस ज्वॉइन की है। रविंद्र भाटी अभी हाल ही में शिव विधानसभा से निर्दलीय विधायक बने हैं। मुख्य मुकाबला कांग्रेस के उम्मेदाराम और रविंद्र सिंह भाटी के बीच ही माना जा रहा है जबकि बीजेपी उम्मीदवार कैलाश चौधरी के तीसरे नंबर पर रहने की संभावनाएं जताई जा रही है।

त्रिभुवन
देश में हुए पहले चुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल की तरह बाड़मेर लोकसभा क्षेत्र में भी ऐसी शख़्सियतों ने चुनाव लड़े थे, जिनका उस इलाक़े में आज भी कोई सानी नहीं।

बाड़मेर के पहले दो लोकसभा सदस्य शिक्षा, मानवीयता, सांप्रदायिक सौहार्द और निर्धन लोगों की मदद की भावना से तो लबरेज़ थे ही, वे बहुत अधिक शिक्षित भी थे। 

लोकसभा क्षेत्र में विधानसभाएं : विधानसभा के हिसाब से पलड़ा भाजपा का भारी
जैसलमेर, शिव, बाड़मेर, बायतू, पचपदरा, सिवाना, गुड़ामालानी, चौहटन। इनमें से पांच (जैसलमेर, पचपदरा, सिवाना, गुड़ामालानी और चौहटन) भाजपा के पास हैं, जबकि दो निर्दलीय (शिव और बाड़मेर) और एक काँग्रेस (बायतू) के।

पलड़ा भाजपा का भारी, मुक़ाबले में काँग्रेस और सबके समीकरण बिगाड़ता भाटी का तूफ़ान
विधानसभा चुनावों के हिसाब से पलड़ा भले भाजपा की तरफ झुका हुआ दिखे और मुक़ाबले में चाहे काँग्रेस के उम्मेदाराम नज़र आते हों; लेकिन निर्दलीय रवींद्रसिंह भाटी नाम के तूफ़ान ने अपनी लोकप्रियता से धूम मचाते हुए सारे सियासी समीकरण उलट-पलट दिए हैं।

भाजपा के उम्मीदवार केंद्रीय मंत्री कैलाश चौधरी हैं, जबकि काँग्रेस के उम्मेदाराम बेनीवाल।

इसमें दिलचस्प पहलू ये है कि विधानसभा चुनाव में बायतू से आरएलपी के उम्मेदाराम और काँग्रेस के हरीश चौधरी आमने-सामने थे। अब चौधरी ने उम्मेदाराम को अपने पक्ष में कर लिया और पार्टी का उम्मीदवार बना दिया।

बाड़मेर लोकसभा की अब तक की चुनावी राजनीति
कैंब्रिज के शिक्षित ने जज की नौकरी छोड़कर लड़ा था पहला चुनाव
1952 : पहले लोकसभा चुनाव में इस क्षेत्र का नाम बाड़मेर-जालौर था। काँग्रेस ने यहाँ से पूनमचंद बिश्नोई को टिकट दिया था। उनके सामने खड़े हुए और जीते भवानीसिंह (निर्दलीय)।

वे इलाके के जागीरदार थे। जीतना ही था।

लेकिन पोकरण ठिकाने के ये जागीरदार मेयो कॉलेज अजमेर से लेकर कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से एलएलबी और लिंकोल्न्स इन्न से दीक्षित और प्रशिक्षित थे।

वे बहुत क़ाबिल बैरिस्टर थे और 1941 से 1947 तक सेशन जज रहे थे।

वे टेनिस और गॉल्फ के अच्छे खिलाड़ी थे।

उन्होंने न्यायाधीश की नौकरी इसलिए छोड़ी थी कि वे राजनीति करें; लेकिन उनका निधन 45 साल की उम्र में 1956 में ही हो गया।

सैनिक अधिकारी के पद से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने आए थे दानवीर युवा रघुनाथसिंह
1957 : अब लोकसभा क्षेत्र बाड़मेर हो चुका था। काँग्रेस ने गोवर्धनदास बिन्नाणी को उम्मीदवार बनाया और उनके सामने निर्दलीय के रूप में थे जैसलमेर के युवा महारावल रघुनाथसिंह बहादुर।

महारावल जीते।

वे महज 27 साल के थे। उनका ननिहाल अमरकोट था। वे मेयो कॉलेज से पढ़े थे और इंडियन आर्मी में कैप्टेन थे। वे सेवा से त्यागपत्र देकर राजनीति में आए थे।

रघुनाथसिंह बहादुर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए बेमिसाल काम किए।

वे निर्धन किसानों को बीज तो पशुपालकों को चारा मुहैया करवाया करते थे।

बहुत बार किसी के पास रोजमर्रा के कामकाज या बेटे-बेटी के विवाह के लिए पैसा न होता तो नकद भी पैसा दे दिया करते थे।

निर्धन बच्चों को भोजन, किताबें और वस्त्र नियमित रूप से देते थे। उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे।

वे बहुत अध्ययनशील व्यक्ति थे। रेगिस्तान के समुद्र में पैदा हुए इस युवा को तैरने का बेहद शौक था। वे क़माल के घुड़सवार थे।

चुनाव खर्च के लिए मिले 21,000 रुपए, खर्च हुए 11,000 तो बाकी 10,000 मतदान के दिन ही लौटा दिए
1962 : काँग्रेस ने ओंकारसिंह खींवसर को टिकट दिया। वे भाजपा सरकार में वर्तमान मंत्री गजेंद्रसिंह खींवसर के पिता थे।

अब तक राज्य में महारानी गायत्री देवी सक्रिय हो चुकी थीं और उन्होंने राम राज्य परिषद की कमान संभाल ली थी।

उन्होंने क्षेत्र के चर्चित नेता तनसिंह से कहा कि वे आरआरपी के टिकट पर चुनाव लड़ें। तनसिंह ने जवाब दिया कि उनके पास पैसा नहीं है। वे चुनाव नहीं लड़ सकते।

इस पर गायत्री देवी ने उन्हें चुनाव खर्च के लिए 21,000 रुपए का चेक भेजा।

चुनाव में खर्च हुए सिर्फ 11,000 तो तनसिंह ने बाकी 10,000 मतदान के दिन ही गायत्री देवी को लौटा दिए।

क्या ही नैतिक आभा थी तनसिंह की। उन्होंने शानदार जीत दर्ज की।
लेकिन ओंकारसिंह के पिता तो और क़माल निकले
चुनाव में काँग्रेस उम्मीदवार ओंकारसिंह की नैतिक आभा और भी क़माल थी।

तनसिंह ने उम्मीदवारी घोषित होते ही अपने प्रतिद्वंद्वी ओंकारसिंह के पिता को पत्र लिखा, मैं चुनाव लड़ रहा हूँ और मुझे आपसे जीत का आशीर्वाद चाहिए।

उन्होंने तुरंत उत्तर भेजा और लिखा, भले आपके सामने मेरा बेटा चुनाव लड़ रहा है; लेकिन मैं विजय श्री का आशीर्वाद तुम्हें देता हूँ!

तनसिंह का नाम लेना आसान है, उनका चरित्र अपनाना मुश्किल
एक राजपूत लड़के ने किसी निर्धन परिवार की बेटी से बलात्कार किया। मामला पुलिस में गया। गिरफ़्तारी होने वाली थी तो राजपूतों का एक समूह एकत्र होकर तनसिंह के पास पहुँचा और पुलिस मदद के लिए अधिकार जताया।

तनसिंह बोले, पहले पीड़ित की बात सुनूंगा। सच का पता लगाऊंगा।
इस पर किसी युवक ने गुस्से से कहा कि वोट तो हम देते हैं और बात उनकी सुनोगे?

इस पर तनसिंह भयंकर गुस्से में आ गए और बोले, सच और इन्साफ़ से बड़ा कुछ नहीं। मैं भले क्षत्रिय युवक संघ चलाता हूँ; लेकिन क्षात्र धर्म निभाता हूँ!

बाद में पता करवाया तो मामला सही निकला और उन्होंने पंचायत लेकर आए लोगों को बुलवाकर कहा कि दोषी लड़के को पुलिस को सौंपो।

नैतिक आभा और सत्यनिष्ठा पर भारी पड़े सब्ज़बाग़
1967 : अमृत नाहटा काँग्रेस से लड़े और तनसिंह स्वतंत्र पार्टी से।
अपनी बेबाकी के कारण तनसिंह चुनाव हार गए और पाली के निवासी और मुंबई में काम करने वाले नाहटा जीत गए।

नाहटा पुराने काँग्रेसी थे और सब्ज़बाग़ दिखाने के उस्ताद।

उन दिनों में उन्होंने लोगों को यह कहकर मोहित कर लिया था कि इज़राइल के रेगिस्तान में खेती हो सकती है तो बाड़मेर में क्यों नहीं!
नाहटा गोर्की, लेनिन, स्टालिन, माओत्से तुंग आदि से नीचे बात ही नहीं किया करते थे।

भैरोसिंह शेखावत भी हारे बाड़मेर से
1971 : अमृत नाहटा काँग्रेस उम्मीदवार थे। अब उनके सामने आए भारतीय जनसंघ के भैरोसिंह शेखावत। शेखावत इस चुनाव में बुरी तरह हारे।

तनसिंह और शेखावत में थी तनातनी
बताते हैं कि क्षत्रिय युवक संघ के एकछत्र नेता तनसिंह और शेखावत के बीच तभी से खटपट थी, जब वे पहली बार विधायक बने।

तनसिंह जागीरदारी उन्मूलन कानून बनाए जाने के सख्त ख़िलाफ़ थे; लेकिन शेखावत समर्थन में।

जानकार बताते हैं कि जसवंतसिंह बीकानेर विधानसभा के सदस्य थे और 1956 में राज्यसभा के लिए चुन लिए गए तो उनकी जगह नेता प्रतिपक्ष बन गए तनसिंह।

विधानसभा में तनसिंह और शेखावत के बीच ठनी ही रहती थी।

इसका नतीजा ये हुआ कि एक राजपूत बहुल इलाके में शेखावत तनसिंह के असहयोग के कारण हार गए।

शेखावत के साथ इसके बाद एक चोट और हुई। वे 1972 में जयपुर के बनीपार्क से जनार्दनसिंह गहलोत से हार गए।

बाड़मेर के सांसद ने आपातकाल में इंदिरा गांधी और संजय गांधी के ख़िलाफ़ बनाई चर्चित फ़िल्म ‘किस्सा कुर्सी का’
इस बीच इमरजेंसी लगी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी की ज़्यादतियों से पूरा देश परेशान था।

काँग्रेस सांसद अमृत नाहटा ने फ़िल्म बनाई ‘किस्सा कुर्सी का’। इस फ़िल्म में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर बहुत ज़बरदस्त हमला था।

संजय गांधी ने तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल की मदद लेकर सेंसर बोर्ड से फ़िल्म ली और इसके सब प्रिंट जलवा दिए।

अब नाहटा काँग्रेस के ख़िलाफ़ थे और वे पाली चले गए और वहाँ से बीएलडी के टिकट पर जीते।

तनसिंह के मुक़ाबले खेतसिंह
1977 : उस चुनाव में जनता लहर थी। तनसिंह बीएलडी से जीते। उनके सामने कॉँग्रेस ने खेतसिंह को उतारा।

इस चुनाव में नाहटा बाड़मेर छोड़कर अपने मूल जिले में जाकर पाली संसदीय सीट से जीत गए।

तनसिंह के निधन के बाद का दौर
1980 : दिसंबर 1979 में तनसिंह का निधन निर्वाचन प्रक्रिया शुरू होने से महज दो दिन पहले हो गया।

चुनाव आया तो विरदीचंद जैन काँग्रेस के उम्मीदवार बने। जैन जीते।

उनके सामने थे जनता पार्टी से जैसलमेर राजपरिवार के चंद्रवीरसिंह भाटी। वे यह चुनाव तो हार गए; लेकिन 1985 में जैसलमेर से विधायक बन गए। उनकी पत्नी रेणुका भाटी जिला प्रमुख रहीं।

जैन दरअसल, बाड़मेर से 1967, 1971 और 1977 के एमएलए थे। इस चुनाव के समय काँग्रेस में विभाजन हो गया था।
अब्दुल हादी अर्स काँग्रेस से लड़े थे।

1984 : इंदिरा गांधी हत्याकांड की सहानुभूति लहर में विरदीचंद जैन काँग्रेस से फिर जीते।

उनके सामने थे लोकदल से गंगाराम चौधरी और बीजेपी से जोगराजसिंह राजपुरोहित। वे इलाक़े के प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता थे।

जोगराजसिंह भैरोसिंह शेखावत के बहुत भरोसे के थे।

नागौर की सियासी बयार ने प्रभावित किया बाड़मेर की राजनीति को
1989 : इस चुनाव में जनता दल के कल्याणसिंह कालवी जीते और काँग्रेस के वृद्धिचंद जैन हारे।

कालवी का आना संयोग नहीं, मारवाड़ की राजनीति में एक अलग धारा की शुरुआत थी, जो बहुत जल्द सूख गई।

1984 में काँग्रेस नेता रामनिवास मिर्धा नागौर से जीते और उनके सामने लोकदल के नाथूराम मिर्धा और जनता पार्टी के कल्याणसिंह कालवी हारे।

इस पराजय ने इन दोनों नेताओं को नज़दीक ला दिया और उन्होंने जाट-राजपूत एकता से जीत की जुगत बिठाने की कोशिश की और क़ामयाब हो गए।

अगले ही साल विधानसभा चुनाव हुए तो उसमें कालवी डेगाना और नाथूराम मिर्धा मेड़ता से विधायक बन गए।

बदली हुई बयार ने इन दोनों ही नहीं, राजनीतिक रेगिस्तान में पाँव जला रहे कई नेताओं के घर वसंत ला दिया।

बाड़मेर में कालवी लोकसभा चुनाव जीते तो नागौर से नाथूराम मिर्धा।

चौधरी देवीलाल और दूसरे जाट नेता कालवी के समर्थन में आए तो चंद्रशेखर, वीपीसिंह और अन्य राजपूत नेताओं ने नागौर में नाथूराम मिर्धा के लिए प्रचार किया।

दोनों ने ग़ज़ब जीत दर्ज़ की।

मिर्धा-कालवी की जोड़ी का डंका बजा तो हिली भाजपा नेताओं की ज़मीन
1991 : यह चुनाव बड़ा ही अहम था। मिर्धा-कालवी की जोड़ी का डंका बज रहा था।

मिर्धा खाद्य और आपूर्ति मंत्री थे और कालवी के पास ऊर्जा और कोयला मंत्रालय।

चंद्रशेखर की सरकार गिरी और चुनाव हुए तो काँग्रेस ने 1984 में नागौर से लोकसभा पहुँचे रामनिवास मिर्धा को बाड़मेर भेज दिया और नागौर से नाथूराम मिर्धा को टिकट दे दिया।

यह कालवी-मिर्धा की जोड़ी को धक्का था।

लेकिन अभी ख़तरनाक़ खेल तो पर्दे के पीछे था।

मिर्धा काँग्रेस की तरफ गए तो कालवी को भाजपा की तरफ रुख करना अच्छा लगा।

लेकिन भाजपा में पहले से एक बड़े राजपूत नेता थे, जो किसी भी सूरत में उस समय के लोकप्रिय कालवी को नहीं पचा पा रहे थे।

वह बहुत होशियार भी थे। कालवी से बात हुई तो उन्हें बाड़मेर से चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली पार्टी से चुनाव लड़ने का ऑफर दिया गया और आश्वस्त किया गया कि भाजपा वहाँ अपना उम्मीदवार नहीं उतारेगी।

कालवी ने जैसे ही बाड़मेर जाकर नामांकन दाखिल किया, सिरोही के एक जैन मुनि कमल विजय को भाजपा ने अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया।

रामनिवास मिर्धा जीते।

कालवी की इस चुनाव में जमानत ज़ब्त हुई और राजस्थान की सियासत का एक सितारा गर्दिश में चला गया।

सियासत में जिस्मानी रूप से ही क़त्ल नहीं किए जाते, रक़ीबों को दाँवपेंच के मक़तल पर ज़िब्ह करके भी लुत्फ़ उठाए जाते हैं।

राजनीति में कर्नल सोनाराम का पदार्पण
1996 : पूंजीवाद, तानाशाही, सामंतवाद और धार्मिक कट्टरता के प्रशंसकों को जिस तरह विकृत आनंद मिलता है, कुछ वैसा ही राजनीति में भी है।

एक परिवार के दो निकट लोग भी वहाँ ऐसी डाह को जीते हैं कि भरोसा नहीं होता।

काँग्रेस की म्यान में अब दो मिर्धा तलवारों का समाना भी आसान नहीं था।

रामनिवास मिर्धा कलापारखी और छलछद्म वाली राजनीति से परे थे और नाथूराम घुटे हुए राजनेता। उनके पास अपनी लंबी-चौड़ी फौज थी। उसमें विधायक भी थे।

रामनिवास मिर्धा 1957 से 1967 तक दूसरी और तीसरी विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके थे। उनका कद बहुत बड़ा था।

अब्दुल हादी, गंगाराम चौधरी और नाथूराम मिर्धा की भी अपनी एक राजनीति थी।

गंगाराम चौधरी 1993 का विधानसभा चुनाव जीत गए थे, लेकिन हादी हार गए।

हारे हुए हादी ख़ुराफ़ातों से बाज़ नहीं आते थे
हादी एक दिन बाड़मेर के डाक बंगले में लोकसभा सदस्य रामनिवास मिर्धा से मिलने गए।

मिर्धा कला पारखी और बहुत आभिजात्य अभिरुचियों वाले गंभीर नेता थे। उनकी शालीनता और नफ़ासत क़माल की थी। हादी एकदम उलट।

ऊँचा पायजामा पहने और बीड़ी फूंकते हादी मिर्धा से मिलने भीतर जाने लगे तो हालात से बेपरवाह और इस शख़्सियत से अनजान पीए ने हादी को रोक दिया।

हादी आम लोगों की लाइन में लग गए।

कुछ देर बाद उन्हें भीतर भेजा गया तो हादी ने मिर्धा से बहुत तंज के साथ कहा, नागौर से आकर यहाँ राज भी करना है और लोगों को लाइन में भी लगवाना है तो ये दोनों काम तो नहीं होंगे।

हादी ने इतना कहा और वापस आ गए।

मिर्धा के पीए को जीवन में शायद ही कभी यह एहसास नहीं हुआ होगा कि उसने उस दिन क्या कर दिया था।

दरअसल, पीएनुमा पद बना ही इसलिए होता है कि चाय से केतली सदा ही ज़्यादा गरम रहे और एक दंभी मूर्खता उसी मनुष्य के संसार को अंधा बनाती रहे, जिसने उसे रख रखा है।

हादी ने उसी दिन बाड़मेर से काँग्रेस के जाट उम्मीदवार की तलाश शुरू कर दी।

उन्हीं दिनों जैसलमेर के मोहनगढ़ का एक फौजी कर्नल सेना से इस्तीफ़ा देकर आया था।

हादी ने कर्नल को तैयारी करने लगा दिया। उसे गाइड करते रहे कि कहाँ-कहाँ जाना है और किस-किससे मिलना है।

इस बीच हादी को पता चला कि रामनिवास मिर्धा जयपुर सर्किट हाउस में रुके हुए हैं। उन्होंने कर्नल से कहा कि दो जीपें लोकल जाटों की भरकर ले जाओ और मिर्धा साहब से मिलो।

अबै थाँ पाछा बाड़मेर मत आइजो!
जयपुर में वही पीए था। उसने मिर्धा साहब को जाने क्या कहा, उन्होंने सब लोगों को भीतर बुलाने, चाय-पानी पूछने के बजाय बाहर लॉन में आ गए, जहाँ सब खड़े थे और काम पूछने लगे।

इस व्यवहार से तपे हुए जाटों ने उनसे कहा, जाट कौम रै माथै बळदेव राम जी रा बहोत एहसान हा। थे बळदेव राम जी रा बेटा हो। म्हैं थानैं एमपी बणा’र बो ऐसान उतार दियो। अबै थाँ पाछा बाड़मेर मत आइजो!

गंभीर स्वभाव के मिर्धा का अपना अंदाज़ था। उन्होंने बाड़मेर के जाटों के भोलेपन को समझा होता या यह जान लिया होता कि ये किसी के पढाए हुए भी हो सकते हैं तो मामला गड़बड़ नहीं होता। लेकिन मिर्धा का भी गुस्सा वहीं उजागर हो गया।

उस चुनाव में नागौर से नाथूराम मिर्धा का टिकट कटना मुमकिन नहीं था। वे सिटिंग एमपी थे और बीमार थे। वे एम्स में भर्ती थे।
उनसे मिलने प्रधानमंत्री नरसिंहराव आए।

बताते हैं कि मिर्धा ने कर्नल के लिए बाड़मेर सीट वहीं मांग ली और रामनिवास मिर्धा का टिकट कट गया।

बाड़मेर से कर्नल का मुक़ाबला भाजपा के जोगराजसिंह राजपुरोहित से हुआ और कर्नल जीते।

सियासत की नई धातु और जंग खाती कसौटियां
1998 : कर्नल सोनाराम को काँग्रेस ने फिर टिकट दिया और जीते।
शेखावत ने अब कालवी को भाजपा में शामिल करवा लिया था और उन्हें बाड़मेर भेज दिया।

कालवी यह चुनाव हार गए।

मालाणी साफ़े ओर बाड़मेरी तेवटे में आया वह एलीट पत्रकार
1999 : कर्नल सोनाराम काँग्रेस के उम्मीदवार थे और भाजपा ने टिकट दिया विदेश में प्रशिक्षित एक नामी पत्रकार को।

वह मालाणी का साफ़ा और बाड़मेरी तेवटा (फैली हुई धोती) बाँधकर चुनाव मैदान में उतरा था। नाम था मानवेंद्रसिंह।

प्रचार के दिन बहुत कम थे। कर्नल को पहले के दो टर्म बहुत अधूरे से मिले थे। इस बार वे जीत गए।

कर्नल की मेहनत ऐसे नए सियासी रंग लाई
2004 : काँग्रेस ने कर्नल को फिर टिकट दिया। कर्नल को इस बार पूरे पाँच साल काम करने का मौक़ा मिला था और उन्होंने काँग्रेस के भीतर अपने ख़िलाफ़ पूरी एक फ़ौज़ खड़ी करने के लिए जमकर मेहनत की, जो रंग लाई।

उनका मुस्लिम लीडरशिप से भी ज़बरदस्त झगड़ा हुआ।

इन हालात में भाजपा उम्मीदवार मानवेंद्रसिंह शानदार ढंग से जीतकर संसद में पहुंचे।

पहली बार बॉर्डर के मुसलमानों ने किसी भाजपा उम्मीदवार को जीभर कर वोट दिए थे।

काँग्रेस-भाजपा की अंदरूनी राजनीति के भंवर, राजघरानों का राजनीतिक इस्तेमाल और पुनर्सीमांकन में बोए गए बबूल
2009 : 2003 से 2008 के बीच और उसके बाद लोकसभा चुनाव तक राजस्थान की राजनीति में बहुत उलट-पुलट हो चुका था।

वसुंधरा राजे से जसवंतसिंह का विवाद बहुत बढ़ चुका था। रियाण वाले मामले में जसवंतसिंह सहित कितने ही भाजपा नेताओं के ख़िलाफ़ भाजपा सरकार ने ही मुकदमे दर्ज़ कर लिए थे।

वसुधंरा राजे बहुत ज़हीन राजनीतिज्ञ और कुशल प्रशासक हैं; लेकिन उनकी राजनीतिक कोटरी ने उन्हें वर्तमान हालात की ओर धकेलने के लिए अथक मेहनत की है। 

पुनर्सीमांकन भी हुआ तो बाड़मेर संसदीय क्षेत्र की दो राजपूत बहुल सीटें जोधपुर में जोड़ दी गईं। इससे इस सीट का चरित्र बदल गया।

अब जाट डामिनेंस बढ़ा और राजपूत वर्चस्व कुछ कम हुआ।
साल 2009 के चुनाव में काँग्रेस के हरीश चौधरी ने भाजपा के मानवेंद्रसिंह को हरा दिया।

हरीश चौधरी काँग्रेस की सियासत में एक नए सितारे की तरह उभरे और जिनके माध्यम से राजनीति कर रहे थे, उनकी आँख की किरकिरी भी जल्द ही बन गए।

लेकिन हरीश चौधरी राहुल गांधी के क़रीब हो गए।

जिस दल को बनाया, उसी ने किया जसवंतसिंह के साथ वह अशोभनीय अन्याय
2014 : मानवेंद्र सिंह 2013 में शिव से विधायक बन गए थे।
जसवंतसिंह बाड़मेर से सांसद बनना चाहते थे।

यह वह दौर था, जब मोदी प्रधानमंत्री बनने की राह देख रहे थे। लेकिन उस समय भाजपा की राजनीति में मोदी से अधिक धमक वसुंधरा राजे की थी।

जसवंतसिंह दार्जिलिंग से एमपी बन चुके थे और जिन्ना वाली विवादित पुस्तक के कारण उनका निष्कासन भी हो चुका था।

अब जसवंतसिंह को राजनीतिक रूप से हाशिए पर डालने के लिए पूरी एक फौज तैयार हो चुकी थी। लेकिन जसवंतसिंह टिकट के लिए अड़े हुए थे।

साल 2013 में कर्नल सोनाराम बायतू से हार चुके थे तो वसुंधरा राजे ने उन्हें दिन के दो बजे भाजपा ज्वाइन करवाकर चार बजे टिकट दिलवा दिया।

जसवंतसिंह निर्दलीय लड़े। टैक्टफुल वोटिंग हुई और जसवंत सिंह हरा दिए गए।

कर्नल सोनाराम अब भाजपा के सांसद थे।

बाड़मेर की नई सियासत और मोदी मंत्र से तैरते हारे नेता
2019 : अब भाजपा और काँग्रेस में बहुत उथलपुथल हो रही थी। भाजपा ने विधानसभा में अपने हारे हुए उम्मीदवार कैलाश चौधरी को टिकट दिया तो काँग्रेस ने मानवेंद्रसिंह को चुनाव मैदान में उतार दिया। इस चुनाव में कैलाश चौधरी जीते और केंद्र में मंत्री बने।

बाड़मेर से अब तक के लोकसभा सदस्य
1952 : भवानीसिंह निर्दलीय
1957 : रघुनाथसिंह बहादुर निर्दलीय
1962 : तनसिंह राम राज्य परिषद
1967 : अमृत नाहटा काँग्रेस
1971 : अमृत नाहटा काँग्रेस
1977 : तनसिंह बीएलडी
1980 : विरदीचंद जैन काँग्रेस
1984 : विरदीचंद जैन काँग्रेस
1989 : कल्याणसिंह कालवी जनता दल
1991 : रामनिवास मिर्धा काँग्रेस
1996 : कर्नल सोनाराम काँग्रेस
1998 : कर्नल सोनाराम काँग्रेस
1999 : कर्नल सोनाराम काँग्रेस
2004 : मानवेंद्रसिंह भाजपा
2009 : हरीश चौधरी काँग्रेस
2014 : कर्नल सोनाराम भाजपा
2019 : कैलाश चौधरी भाजपा

और अंत में
अगर आप शेयर मार्केट में रुचि रखते हैं तो आपने मोतीलाल ओसवाल का नाम ज़रूर सुना होगा। यह मोतीलाल ओसवाल कोई और नहीं, बाड़मेर के सिवाना इलाक़े के पदरू के हैं और वहीं के सरकारी स्कूल में पढ़े हैं।

बाड़मेर की सियासत की सिगड़ी लंबे समय से बुझी हुई थी; लेकिन अब रवींद्रसिंह भाटी ने आकर भीतर ही भीतर इसके कोयलों को इतना दहका दिया है कि देश में सत्ता के सबसे बड़े शक्ति केंद्र तक उसका ताप साफ़ दिख रहा है।

अभी सियासत के बाज़ार में मोतीलाल ओसवाल बने विशेषज्ञों को समझ नहीं आ रहा कि यह नया शेयर एकदम कैसे बाकी सबको ऑनली सेलर्स वाली श्रेणी में डाले हुए है!

(त्रिभुवन, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है, यह लेख उनके सोशल मीडिया अकाउंट X से साभार लिया गया है।)

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