विश्व आदिवासी दिवस : सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं की रक्षा के संकल्प पर वेबीनार का आयोजन


हाल में 9 अगस्त को पूरी दुनिया ने विश्व आदिवासी दिवस (international day of World’s indigenous people) मनाया जहां अमूर्त सांस्कृतिक विरासत और भारत की विविध सांस्कृतिक परंपराओं को संजोए रखने और आदिवासी जीवन शैली, परंपराओं और अधिकारों के बारे में हर हिस्से में चर्चा, सेमीनारें रखी गई।

इसी मौके पर यूनेस्को की राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों और संस्थानों के साथ जयपुर के लोक संवाद संस्थान और जोधपुर के रूपायन संस्थान की तरफ से अमूर्त सांस्कृतिक विरासत और भारत की विविध सांस्कृतिक परंपराओं की रक्षा के लिए 2 दिवसीय वर्चुअल इवेंट का आयोजन जोधपुर के मोकलवास गांव में किया गया।

इस वेबिनार के माध्यम से सभी के सामने यह तस्वीर रखी गई कि कैसे राजस्थान अपनी जीवंत भौतिक संस्कृति और लोक कला का विश्व मानचित्र पर भारत का प्रतिनिधित्व करता है।

इन खानाबदोश जनजातियों की भाषाओं से लेकर पेशेवर और गैर-पेशेवर समुदायों की मौखिक और संगीत परंपराओं तक विस्तृत है। यह भूमि सांस्कृतिक संसाधनों से भरी हुई है, जिनमें से कुछ को ही पहचाना और खोजा गया है।

वहीं कोरोना महामारी को देखते हुए हमारी संस्कृतियों का पुनर्वास करने की दिशा में पारंपरिक कलाओं को पुनर्जीवित करने पर भी जोर दिया गया।

कार्यक्रम की शुरूआत राजस्थानी लोक गीत ‘धूमलढ़ी’ के साथ हुई जो की चानन खान और अनवर खान मंगनियार को समर्पित किया गया। केरल थिएटर और नृत्य को दर्शाते हुए, मुदियेत्तु नामक एक लघु फिल्म, कोमल कोठारी की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का भी प्रदर्शन हुआ।

लोक संवाद संस्थान के सचिव कल्याण सिंह कोठारी ने बताया कि, अमूर्त सांस्कृतिक परंपरा के संरक्षण करने के लिए सोशल मिडिया कैम्पेन “मरू मणि” के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता एवं संरक्षण के लिए यह प्रयास किया गया है।

आगे वह बताते हैं कि इस आयोजन में बड़ी संख्या मे देश और विदेश के लोगों को आकर्षित किया है जिसमें हमारे पास 500 से अधिक पंजीकरण आए।

वहीं कार्यक्रम में भाग लेने वाले विशेषज्ञों और योगदानकर्ताओं ने एक मजबूत सांस्कृतिक नीति के लिए आग्रह किया और इस वक़्त की आवश्यकता बताया।

सांकेतिक फोटो

वहीं वेबीनार में शामिल हुए दी आदिवासी अकादमी, तेजगढ़ के निदेशक डॉ मदन मीणा ने कहा कि, आधुनिक शिक्षा के विकास और प्रभाव के बाद कई सामाजिक-सांस्कृतिक प्रथाओं ने अपना महत्व और प्रासंगिकता खो दी है, जो कि इस भूमि की जान और पहचान थी। इससे पहले कि इस तरह की धरोहरें स्थायी रूप से विलुप्त हो जाएं, समुदाय-आधारित और सरकारी पहल के माध्यम से उनकी मान्यता और मूल्य को संजोने की आवश्यकता है।

इसके अलावा कार्यक्रम में डॉ सच्चिदानंद जोशी,  सेक्रेटरी IGNCA दिल्ली, सीनियर मीडिया गुरू और आईआईएमसी के पूर्व महानिदेशक केजी सुरेश, रूपायन संस्थान के सचिव कुलदीप कोठारी, प्रो सजल मुखर्जी ने अपने विचार व्यक्त किए।

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