विपक्ष के सबसे मज़बूत अंश के अंत की इच्छाएँ पालना कितना घृणित लगता है!


हार के कयी कारण हो सकते हैं और हो सकता है एक ही कारण हो!

कुछ लोग कह रहे हैं की अब जाति की लड़ाई बची नहीं तो फिर वो इस बात का जवाब नहीं दे पाते की सामंतवादी सांप्रदायिकता को अगर जातिगत राजनीति से ना हराया जाए तो फिर कौनसा तरीक़ा अपनाएँ!

जो लोग राहुल गाँधी को इसका ज़िम्मेदार मान रहे हैं वो चंद्रबाबू नायडू,ममता,अखिलेश,मायावती की हार का जवाब नहीं दे पा रहे!

क्या इनकी हार की ज़िम्मेदारी भी राहुल गाँधी की है? मुझे राहुल गाँधी से कोई सहानभूति नहीं लेकिन वैचारिक अवसाद में घुटे लोगों की प्रतिक्रियाओं पर दुःख होता है!

चलो मान लेते हैं की कांग्रेस को ख़त्म हो जाना चाहिए तो फिर जो विकल्प संप्रदायिकता के विरुद्ध खड़ा होगा उसका आधार क्या होगा!

सामाजिक न्याय क नारा (जातिवादी अधिकार की राजनीति)आपके हिसाब दफ़्न हो चुका है!क्षेत्रीय दलों के पास कोई विज़न नहीं है!

वो अपनी न्यूनतम हितों वाली राजनीति करते ही रहेंगे! जब इस तरह के विकल्प बंद हैं तो फिर कांग्रेस के मिट जाने से कौनसी क्रांति आ जाएगी!

जबकि कांग्रेस के पास एक ऐतिहासिकता तो है!देश को आज़ाद करवाने से लेकर 60 साल राज करने का अनुभव तो है!

कांग्रेस के पास एक विचारधारा चाहे विकलांग हो चुकी पर है तो सही!
कांग्रेस को बदलना चाहिए कि उसे “Idea of India” की रक्षा करनी है!

भारत के सबसे सांप्रदायिक दौर में जब यह संस्थागत होने स्तर पर पहुँच चुकी है!

जब मीडिया से लेकर चुनाव आयोग और न्यायलयों तक में हिंदुत्व नंगा नाच कर रहा है! तब आप विपक्ष के सबसे मज़बूत अंश के अंत की इच्छाएँ पाल रहे हैं! ये कितना घर्णित लगता है!

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