-ख़ान शाहीन
जनवरी का महीना था….
सर्दियो की ख़ूबसूरत दोपहर,
पौधों पर बर्फ़ इस तरह जम गई कि वे चांदनी की तरह झलकने लगी हैं।मैने एक पहाड़ी पर खड़े हुए ये सारा नज़ारा देखा। मेरे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है जिसमें सूरज की रोशनी ऐसे चमक रही है जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो। बचपन से ही मुझे ऊंचाई से कभी डर नही लगा, हाँ सफलताओ की ऊंचाई को हमेशा ही छुने की ज़िद्द थी, लेकिन इसका मिलना इतना आसान कहाँ था? समय के गुज़रते कभी पता ही नही लगता था की कैसे महीने और साल निकल रहे है और हम अपने भविष्य के लक्ष्य से अभी बहुत दूर खड़े नज़र आते है.. अचानक ही पास से ज़ीनत ने आवाज़ दी “चलो अब पहाड़ी के नीचे की ओर चलना है, शाम ढलने को आई है!”
रोज़ यहाँ पहाड़ी पर आकर ज़िन्दगी की असफलताओ से बहुत कुछ सीखने को मिलता है,
सफलताएं ऐसे ही नही मिलती हर बार मेहनत , वक़्त और ऊंचाई पर जाने के आसान और सरल रास्तो को दिमाग से खोजा जाता है, रोज़ यहाँ आकर एक उम्मीद मिलती है की शाम ढलने और स्याह अँधेरे के बाद फिर एक नई किरण फूटती है अपनी गलतियों को सुधारने और लक्ष्य को फिर पाने की…
(राजस्थान के सीकर की निवासी ख़ान शाहीन युवा साहित्यकार है ,इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपती रहती हैं)