ये बेक़रारी कैसी
कुछ टूटा भी नहीं तेरे-मेरे दरम्यां, फिर ये आवाज कैसी
कभी छूटा भी नहीं हाथों से हाथ, फिर ये दरार और खाई कैसी
तेरे होने मात्र का एहसास तसल्ली दे जाता था
आज तू पास होकर भी ये बेपरवाही कैसी
रिश्ता टूटा भी नहीं फिर ये कमजोर डोरी कैसी
तूने लूटा भी नही हमारा चैन, फिर ये बेकरारी कैसी
क्यूं तुमसे शिकायतें नहीं है हमको आज
दोेनो के बेकसूर होते हूए भी ये सजा और खुमारी कैसी
कभी छूटा भी नहीं हमारा साथ फिर ये तन्हाई कैसी
कभी घुटा भी नहीं जंजीरों में फिर ये रिहाई कैसी
क्यूं मिल बैठ के सुलझा नही लेते मसलों को हम
रग-रग पहचानते हुए भी जवाब में हमेशा ये सफाई कैसी
कभी फूटा भी नहीं गुब्बार गुस्से का, फिर जबान में ये कड़वाहट कैसी
कभी भरा भी नहीं तुमसे जी ,फिर आकर तेरे करीब ये घबराहट कैसी
क्यों तुमसे बैयां ना कर पाते दिल में दफ्न जज्बात को
अपने यार से शर्म और ये हिचकिचाहट कैसी
–संगीता चौधरी
(छात्रा, कल्चर एंड मीडिया स्टडीज विभाग)
राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, किशनगढ़, अजमेर