साथी हाथ बढ़ाना !
श्रमिक हमारी सभ्यता और संस्कृति के निर्माता भी हैं और वाहक भी। मनुवादी संस्कृति ने उन्हें वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखा। उन्हें शूद्र, दास और अछूत घोषित कर श्रम को तिरस्कृत करने की हर संभव कोशिश की गई। सामंती व्यवस्था ने सदियों तक उन्हें गुलाम और बंधुआ बनाकर उनकी मेहनत का शोषण किया। आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी की तुलना में उनके श्रम की हैसियत दोयम दर्ज़े की है। उत्पादन में केंद्रीय भूमिका निभाने वालों को उत्पादन में उनका जायज हिस्सा पूंजीवादी व्यवस्था में भी नहीं मिला। कथित मार्क्सवादियों ने ‘सर्वहारा की तानाशाही’ का झूठा सपना दिखाकर उन्हें कभी अपना हथियार ढोने वालों में, कभी अपनी प्रचार-सामग्री में, कभी अपने वोट बैंक में तब्दील किया। दौर कोई भी रहा हो, हमारे मेहनतकश समाज की मुख्यधारा से हमेशा ही वहिष्कृत रहे। युगों से छले जा रहे श्रमिकों को वह श्रेय और सम्मान कभी नहीं मिला जिसके वे वास्तव में हक़दार हैं। निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के संगठित श्रमिकों ने लंबे संघर्ष के बाद थोड़ी बहुत सहूलियतें ज़रूर हासिल की है, मगर गांवों और शहरों में असंगठित मजदूरों की हालत आज भी पहले जैसी दयनीय है। ‘श्रमिक दिवस’ पर देश के सभी श्रमिकों को उनके बेहतर भविष्य की दिली शुभकामनाएं, एक नज़्म की पंक्तियों के साथ !
ये हैं मज़दूर जो
हर हाल में मुस्काते हैं
चाहते कम हैं
इन्हें ख्व़ाब भी कम आते हैं
घर में बच्चों को
कभी नर्म बिछौना न मिला
इसलिए धूप पे
सर रखके भी सो जाते हैं !
-ध्रुव गुप्त
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