–त्रिभुवन
आइए, जानें झुंझुनूं लोकसभा क्षेत्र की राजनीति के अछूते पहलुओं को
यह राजस्थान का एकमात्र ऐसा लोकसभा क्षेत्र है, जिसने मुस्लिम सांसद दिया और उसे दो बार लोकसभा भेजा। इसके अलावा और कहीं से भी कभी कोई मुस्लिम सांसद नहीं जीता।
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इस इलाक़े ने दुनिया को उद्योग जगत के सितारे और बिज़नेस टाइकून भी ख़ूब दिए।
वीरों की इस भूमि की धमक ब्रिटिश किंगडम को थर्राती रही है।
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अंग़रेज़ इसे हिंदुस्तान का स्कॉटलैंड ऑव दॅ ब्रेव कहते रहे; क्योंकि पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में इस इलाके के बहादुर सैनिकों ने अंग़रेज़ी सेना की बहुत मदद की।
चिड़ावा के पेड़े हों या प्रतिभाएं, सबका अपना ऐसा स्वाद है कि वह जाता ही नहीं।
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उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ किठाना के हैं तो पंजाब के राज्यपाल बीएल पुरोहित नवलगढ़ में जन्मे हैं। वे तमिलनाडु और असम के पूर्व राज्यपाल रह चुके हैं।
जोशी नागपुर से तीन बार सांसद रहे। दो बार काँग्रेस एक बार बीजेपी।
यह सेक्सरियाओं, रूंगटाओं, मुरारकाओं और बिड़लाओं की जन्मभूमि रही है।
यह महिला शिक्षा का अग्रणी इलाका रहा है। इन निरक्षर और रूढ़िवादी इलाके में शिक्षा और विवेकशीलता की लौ स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके शिष्य स्वामी नित्यानंद ने जलाई थी।
दयानंद इस इलाके में आए थे और नित्यानंद तो लंबे समय अलख जगाते ही रहे। इसका असर ही था कि यहाँ महिला शिक्षा, समाज सुधार और वामपंथी आंदाेलन जन्मे।
गौरीर के नेतराम की बेटी कमला वनस्थली विद्यापीठ की पहली स्नातक बनीं तो सुमित्रासिंह ने भी वहीं से शिक्षा पाई।
राजस्थान की राजनीति में महिलाओं की धमक बहुत शुरू से इन्हीं के कारण रही।
यह कल्पना करना कितना सुखद है कि कमला की शादी हुई तो उसमें दहेज के नाम पर कोई लेनदेन नहीं हुआ। वे एक बेहतरीन तैराक तो रही ही, कुशल घुड़सवार भी रही हैं।
वे 27 साल की उम्र में मंत्री बन गई थीं।
कमला के बाद सुमित्रासिंह की धमक रही, जो आज तक बरकरार है।
ताकतवर जाट और राजपूत नेताओं के दबदबे के बीच जगह बनाने वाली ये महिलाएं राजस्थान की राजनीति को नए तरीके से तामीर करने में मददगार बनीं।
कमला ने राजनीति के आख़िरी दौर में गुजरात के राज्यपाल रहते मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ताकत का एहसास करवाकर पहचान बनाई।
मौजूदा उपराष्ट्रति जगदीप धनखड़ को पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाया गया तो वे मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी से दो-चार होते रहे।
यानी काँग्रेस की सरकार को राज्यपाल के रूप में नरेंद्र मोदी से लड़ने के लिए झुंझुनूं से कमला जैसी दबंग और निडर राज्यपाल मिलीं तो नरेंद्र मोदी को भी पश्चिम बंगाल की निर्भीक मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी से मुक़ाबला करने के लिए लड़ाकू राज्यपाल की ज़रूरत पड़ी तो यह ख़ूबी झुंझुनूं के ही एक जाट वक़ील में दिखाई दी।
वक़ालत में प्रख्यात धनखड़ की याददाश्त क़माल है और वे किसी बच्चे से भी एक बार मिल लें तो उसका नाम नहीं भूलते। उनका याराना और मेहमाननवाज़ी दोनों ही क़माल हैं। वे पढ़ते भी जमकर हैं।
राजनीति में जिन भी राहों पर वे चले हैं, रिश्तों को आज तक बरकरार रखा है। वे राज्यपाल बने तब भी और उपराष्ट्रपति बने तब भी, राजस्थान के कुशल राजनेता अशोक गहलोत ने उनके सम्मान में भोज दिए।
कहते हैं कि झुंझुनूं से निकले झूठ, भरूंट और रंगरूट का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता! तो ऐसे में अगर वहाँ का कोई नेता हो तो फिर कहने ही क्या!
पहले विधानसभा अध्यक्ष झुंझुनूं से
राजस्थान के पहले विधानसभा अध्यक्ष नरोत्तमलाल जोशी झुंझुनूं से थे। डॉ. चंद्रभान, रामनारायण चौधरी जैसे कितने ही बड़े नेता इस इलाके से रहे हैं। नए नेताओं में भाजपा विधायक गोपाल शर्मा नवलगढ़ से हैं।
कहानी बिज़नेस टाइकून गोविंदराम सेक्सरिया की : पूरी दुनिया को हिला देने वाली शख़्सियत
पूरी दुनिया को अपनी बिज़नेस स्किल्स से हिला देने वाले कॉटन किंग ऑव इंडिया गोविंदराम सेक्सरिया नवलगढ़ से ही थे। उनकी कहानी बड़ी प्रेरक है।
एक छोटा किशोर। बाल विवाह हो चुका। माँ-बाप की मृत्यु हो जाती है। परिवार के सामने एक-एक पल का संकट है। आख़िर हिम्मत करके यह लड़का पत्नी, तीन छोटे भाइयों और दो बहनों को लेकर मुंबई निकला।
याद कीजिए अभिषेक बच्चन की फिल्म ‘गुरु’ को। वह मानो गोविंदराम सेक्सरिया की ही सच्ची कहानी है। जानें क्यों लोग उसे धीरू भाई अंबानी से जोड़ते हैं।
सेक्सरिया ने मुंबई जाकर कॉमोडिटी बिजनेस और रियल एस्टेट का काम शुरू किया तो वही सब हुआ जो ‘गुरु’ में होता है।
वे बुलियन में प्रवेश करते हैं।
इंडियन स्टॉक एक्सचेंज के संस्थापकों में एक होते हैं।
1934 में न्यूयॉर्क कॉटन एक्सचेंज के मेंबर बन गए। उस ज़माने में इसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता था।
लीवरपूल कॉटन एक्सचेंज़ के मेंबर बने। ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोप के कितने ही देशों में कॉपर, शुगर और वीट के एक्सचेंज के सदस्य रहे।
बैंक ऑव राजस्थान और बॉम्बे हॉस्पीटल के प्रमुख डॉनर में एक रहे।
उन्हीं के परिवार के नरोत्तम सेक्सरिया ने अंबुजा सीमेंट वाला उद्योग शुरू किया।
भारत में हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस का जलवा कौन नहीं जानता। इन दोनों ही अख़बारों के संचालक औद्योगिक घराने झुंझुनूं से हैं।
गोयनका परिवार नवलगढ़ के डूंडलोद से है। बिज़नेस टाइकून हरिराम गोयनका को ब्रिटिश सरकार ने नाइट की उपाधि दी तो उनके छोटे भाई रायबहादुर बदरीदास गोयनका को इंपीरियल बैंक का चेयरमैन बनाया। वे पहले मारवाड़ी थे, जो कलकत्ता के प्रेजिडेंसी कॉलेज से ग्रेजुएट हुए। वे एसबीआइ के भी चेयरमैन रहे।
बदरीदास गोयनका की बिड़ला से बहुत प्रतिद्वंद्विता थी। वे बिड़ला को इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में मारवाड़ियों के लिए रिज़र्व सीट पर पछाड़ने में कामयाब रहे। उन्हें ब्रिटिश सरकार ने 1923 में इसके लिए नॉमिनेट किया था। इसके बाद ही बिड़ला ने अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ और गांधी जी के समर्थन में रुख किया।
बदरीदास गोयनका 1928 में हिल्टन यंग कमिशन के भी सदस्य बनाए गए, जो भारत में वित्तीय और आर्थिक स्थितियों का अध्ययन करने के लिए आया था।
पाकिस्तान के मशहूर बाबा ज़हीन शाह युसुफ़ ताज़ी झुंझुनूं की पैदाइश हैं।
पंडित श्यामसुंदर सुरोलिया ने किशोर उम्र में आज़ादी की लड़ाई के दिनों में बम बनाए और बांग्लादेश के चौडांगा के किशोर गृह में छह महीने की सज़ा पाई।
आर्यसमाज के सुधारकों, समाजवादियों, वामपंथियों और सेठ-साहूकारों की इस धरती पर वीर सैनिकों की शाहदतें दमकती हैं।
आज़ादी के आंदोलन में अग्रणी। कहते हैं कि घर में पत्नी बच्चे को जन्म दे रही होती और पति उसी समय जेल की यात्रा पर निकल रहा होता।
राजस्थान के पहले आइएएस आनंदीलाल रूंगटा झुंझुनूं के बग्गड़ से ही थे।
घनश्यामदास बिड़ला, जुगलकिशोर बिड़ला पिलानी से थे तो डालमिया चिड़ावा से, मफतलाल झुंझुनूं से तो सिंघानिया सिंघाना से। मोरारका और पोद्दार नवलगढ़ से तो गोयनका मुकुंदगढ़ से। परसरामपुरिया परसरामपुर से। पीरामल परिवार भी झुंझुनूं से है। इन परिवारों की औद्योगिक सफलता की कहानियां सबको मालूम हैं।
चर्चित अभिनेत्री कीर्ति कुल्हेरी झुंझुनूं से हैं तो इरफ़ान के साथ लंच बॉक्स और अभिषेक बच्चन के साथ दसवीं में धूम मचाने वाली निमरत कौर भी यहीं से हैं।
विवेकानंद को विवेकानंद बनाया खेतड़ी ने
स्वामी विवेकानंद के प्रति खेतड़ी महाराजा अजीतसिंह का बड़ा लगाव था। उनके कारण वे खेतड़ी आए और उन्होंने ही स्वामी जी को 28 साल की उम्र में 10 मई 1893 को अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए सारी व्यवस्थाएं कर भेजा। वे खेतड़ी महल में ही रुकते थे।
नेहरू परिवार की रगों में दौड़ता है खेतड़ी की एक माँ का दूध
जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू के बड़े भाई पंडित नंदलाल नेहरू 1862 में खेतड़ी नरेश फतेहसिंह के निजी सचिव बने और बाद में दीवान।
उनके शिशु भाई मोतीलाल भी साथ थे। माँ का निधन हो गया था। शिशु को दूध नहीं मिल रहा था तो खेतड़ी में लच्छीराम माली की पत्नी ने उन्हीं दिनों उन्हें गोद में रखा और हमेशा दूध पिलातीं।
जवाहरलाल नेहरू ने भी घुड़सवारी खेतड़ी में ही सीखी और वे बहुत समय तक अपना यह शौक पूरा करने यहाँ आते रहे।
नवलगढ़ की हवेलियां हों या खेतड़ी कॉपर माइंस या फिर बिट्स पिलानी, यहाँ बहुत कुछ ऐसा है, जो झुंझुनूं को राजस्थान के बाकी जिलों से अलग पहचान देता है।
1965 के युद्ध में कैप्टन अय्यूब खान ने जो बहादुरी दिखाई, उस पर उन्हें कौन भूल सकता है। बैटल ऑव फिलौरा के कितने ही किस्से लोगों के ज़ेहन में हैं।
विख्यात ग़ज़ल गायक मेहदी हसन जन्म अलसीसर पंचायत के लूणा गांव में हुआ था, जिसे वे हमेशा ही याद करते थे।
पीरूसिंह शेखावत पहले परमवीर चक्र विजेता। बेरी रामपुर के थे।
कामयखानी मुसलमानों की जन्मस्थली
मुहनोत नैंसी की ख्यात के अनुसार हिसार के फौजदार सैय्यद नासिर ने ददरेवा के चौहानों पर हमला किया और इलाके को लूट लिया। डरकर लोग भाग गए। दो छोटे लड़के (एक चौहान राजपूत और एक जाट) बचे रह गए। वह उन्हें हिसार ले गया और उनका पालन-पोषण किया। सैय्यद नासिर की मृत्यु के बाद उन दोनों को सुल्तान बहलोल लोदी के सामने पेश किया गया, जिन्होंने राजपूत लड़के (करमसी) का धर्म परिवर्तन कराया और उसका नाम कायमखान रखा। उन्हें सैय्यद नासिर का मनसब दिया गया।
कयामखान के दो बेटे हुए। मुहम्मद खान और ताज खान। मुहम्मद खान और उनके भतीजे फतेहखान (ताज खान का पुत्र) ने झुंझुनूं वापसी की और इलाके को छीन लिया।
फतेहखाँ ने 1451 में फ़तेहपुर की स्थापना की और जब तक किला बना पास के गांव रानेओ में रहा।
मुहम्मद खान झुंझुनूं के पहले नवाब थे।
1857 में जैसे रानी लक्ष्मीबाई के साथ हुआ, यहाँ भी हुआ
1843 में खेतड़ी के युवा राजा श्योनाथसिंह की चेचक से मृत्यु हो गई और उनकी गर्भवती पत्नी को जेल में डाल दिया गया। अंग़रेज़ कोशिश कर रहे थे कि वह नि:संतान हो तो उसे शासन से वंचित कर दिया जाए। लेकिन जेल में रानी ने बेटे को जन्म दिया। यह इतिहास की एक ऐसी कहानी है, जिसे इतिहासकारों ने सही से कभी नहीं खंगाला।
झुंझुनूं के सांसद
1952 : पन्नालाल बारूपाल काँग्रेस
1952 : आरआर मुरारका काँग्रेस
1957 : आरआर मुरारका काँग्रेस
1962 : आरआर मुरारका काँग्रेस
1967 : आरके बिड़ला स्वतंत्र पार्टी
1971 : शिवनाथ सिंह काँग्रेस-जे
1977 : कन्हैयालाल BLD
1980 : भीमसिंह JP
1984 : मुहम्मद अय्यूब खान INC
1989 : जगदीप धनखड़ JD
1991 : मुहम्मद अय्यूब खान INC
1996 : शीशराम ओला AIIC(T)
1998 : शीशराम ओला AIIC(S)
1999 : शीशराम ओला INC
2004 : शीशराम ओला INC
2009 : शीशराम ओला INC
2014 : संतोष अहलावत BJP
2019 : नरेंद्र कुमार BJP
और चुनावों की कहानियां ऐसे रहीं
1952 : पहला चुनाव; जिसमें दो सांसद एक चुने गए
इस चुनाव में लोकसभा क्षेत्र का नाम था गंगानगर-झुंझुनूं। इसमें दो सांसद एक साथ चुने गए। एक एससी और एक गैरएससी। इस चुनाव में गंगानगर-झुंझुनूं और भरतपुर-सवाई माधोपुर दो लोकसभा क्षेत्र ऐसे थे, जिन्होंने दो-दो सांसद चुने। एक-एक एससी और एक-एक गैरएससी। उस चुनाव में लोकसभा क्षेत्र तो 18 थे; लेकिन सांसद बीस चुने गए थे। यानी 18 सीटें एकल सांसद वाली थीं और दो डबल सांसद वाली। सिंगल वाली 18 सीटों में बांसवाड़ा सीट एसटी के लिए रिज़र्व थी।
सबसे अधिक वोट ले गया एससी उम्मीदवार
इस चुनाव में कुल 10 उम्मीदवार खड़े हुए।
काँग्रेस के दो : राधेश्याम मुरारका और पन्नालाल बारूपाल। पन्नालाल बारूपाल एससी उम्मीदवार थे।
रामराज्य परिषद के घनश्यामदास और चिरंजीलाल लोयलका थे।
सोशलिस्ट पार्टी से प्रो. केदार, ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्ट फैडरेशन से छोटूराम प्रधान, कृषक लोक पार्टी से गंगाराम, किसान मज़दूर प्रजा पार्टी से रामदेवा और दो निर्दलीय सनतकुमार और सतनारायण थे।
मतदान हुआ सबसे अधिक मत 1,54,079 मिले पन्नालाल बारूपाल को। मोररका को मिले 1,43,779 वोट। घनश्याम दास तीसरे स्थान पर रहे और 75,379 वोट मिले। प्रो. केदार से 306 वोट ज़्यादा।
तो बारूपाल और मोरारका के रूप में इलाके को दो सांसद मिले।
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1957 : मुरारका ने हराया सीपीआई को
राधेश्याम मुरारका ने सीपीआई के घासीराम को हराया। मुरारका को 77,478 और घासीराम को 65,479 वोट मिले। रामराज्य परिषद के हरिबख्श जोशी को 28,398 वोट आए।
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1962 : मुरारका की तीसरी जीत
मुरारका ने इस बार स्वतंत्र पार्टी के रघुवरसिंह को 81,051 के मुकाबले 77,591 वोटों से हराया। इस चुनाव में सीपीआई के घासीराम तीसरे नंबर पर रहे।
1967 : आरके बिड़ला स्वतंत्र पार्टी से सांसद बने।
बिड़ला ने तीन बार के सांसद मुरारका को हराया। आरके बिड़ला बिड़लाओं के मुनीम थे। उनका वैसे घनश्यामदास बिड़ला या केके बिड़ला से कोई सीधा पारिवारिक रिश्ता नहीं था। लेकिन उन्हें बिड़ला परिवार का ही समझा गया और वे यह चुनाव काफी अच्छे अंतर से जीते।
1971 : पाकिस्तान की पराजय और बांग्लादेश निर्माण की लहर
नल मांगा तो ट्यूबवेल दिया; लेकिन वोट फिर भी नहीं मिले केके बिड़ला को
1971 का चुनाव राजस्थान की राजनीति का अनूठा चुनाव रहा। घनश्याम दास बिड़ला जैसे उद्योगपति के बेटे और मीडिया शाहंशाह शोभना भरतिया के पिता केके बिड़ला 1971 में झुंझुनूं से चुनाव मैदान में पूरी तैयारियों के साथ स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार के रूप में उतरे; लेकिन गुढ़ागोड़जी के काँग्रेस उम्मीदवार शिवनाथसिंह गिल से हार गए।
शिवनाथसिंह गिल नाम पड़ गया बिड़ला-पछाड़; लेकिन अगले चुनाव में जनता पार्टी की आँधी चली और उसमें वे बीएलडी के कन्हैयालाल से हार गए।
चुनाव की ख़ास बात ये रही कि केके बिड़ला ने बहुत पैसा बांटा। किसी ने मुहल्ले में पानी का नल लगाने को कहा तो उन्होंने ट्यूबवेल लगवा दिया।
ऐसा कोई घर नहीं था, जिसमें उन्होंने रिजाइयां नहीं पहुंचाईं।
बताते हैं कि बिड़ला के प्रचार के लिए कुर्ते की जेब पर लगाने वाले इतने बिल्ले बांटे गए थे कि लोगों ने बिल्ले तो फेंक दिए और उसके पीछे लगे बक्सुए (सेफ़्टी पिनें) इतनी ज़्यादा तादाद में संभाल कर रखे कि कुछ घरों में तो वे आज भी काम आते हैं।
बिड़ला के समर्थन में इतना कुछ बंटा कि उसकी फ़ेहरिस्त मुश्किल है; लेकिन यह जानना दिलचस्प है कि लोगों को हरीभाई खंटन देसाई बीड़ियों के बंडल वाले पुड़े इतनी तादाद में बांटे कि कुछ लोगों ने अपने कमरे भर लिए और मेहमान आते तो उन्हें बाहर बिठाते।
यह प्रचार अलग तरह का था। बिड़ला और उनके समर्थक इस रेगिस्तानी इलाके में मोटरसाइकिलों का प्रयोग करते तो शिवनाथसिंह और उनकी टोली ऊॅँटों पर प्रचार करती। झुंझुनूं के ऊँटों ने जीपों और मोटरसाइकिलों की इज़्ज़त धूल में मिला दी।
बिड़ला पूरे 98,949 वोटों से हारे। अब तक कोई उम्मीदवार इतनी बुरी तरह नहीं हारा था।
बिड़ला की हार जाट पॉलिटिक्स का टिपिंग पॉइंट
बिड़ला को जब एक साधारण किसान ने हरा दिया तो जाट राजनीतिक चेतना फूटी और उन्हें लगा कि उनके लिए राजनीति मुश्किल नहीं है। इसके साथ ही यहाँ जाट राजनीति ने करवट ली और नई अंगड़ाइयां भरीं।
1977 : जनता लहर का कहर
कन्हैयालाल जाट BLD से सांसद चुने गए और उन्होंने शिवनाथसिंह गिल को हराया। 1980 में जनता पार्टी की टिकट पर मंडावा ठाकुर भीमसिंह जीते। ठाकुर भीमसिंह के परिवार के बारे में एक किस्सा मशहूर है कि 1952 के चुनाव में नवलगढ़ से ठाकुर भीमसिंह राम राज्य परिषद से जीते और उनके सगे भाई ठाकुर देवीसिंह गुढ़ा से।
1984 : इंदिरा की हत्या की सहानुभूति लहर
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी। यह एक लहर का चुनाव था। इसमें एक पुराने फ़ौजी मुहम्मद अय्यूब खान काँग्रेस की टिकट पर खड़े हुए तो सुमित्रासिंह लोकदल से और कुंदनसिंह भाजपा से।
कैप्टन अय्यूब चुने गए तो यह प्रदेश की राजनीति में इतिहास बना और वे संसद में पहुंचने वाले पहले मुस्लिम सांसद बने। कैप्टन अय्युब नूवा गांव से थे और 1965 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने शौर्यपूर्ण काम किया था। इसके लिए इन्हें वीरचक्र से सम्मानित किया।
उन्होंने सियालकोट सेक्टर में पाकिस्तान के चार पैटन टैंकों को बमों से उड़ा दिया था। उनके पिता भी भारतीय सेना में थे।
झुंझुनूं जिले का शायद ही कोई गांव हो, जहाँ से दो-चार फ़ौजी भारतीय सेना में न हों।
एक नए राजनीतिक नक्षत्र का उदय
1989 : राजीव गांधी पर बोफर्स तोप घोटाले के आरोप लगे और देश में वीपीसिंह, चंद्रशेखर और देवीलाल जैसे नेताओं ने ज़बरदस्त माहौल बनाया। प्रदेश में चर्चित वकील जगदीप धनखड़ जनता दल से जुड़े और सांसद बने। वे वीपीसिंह सरकार में उपमंत्री बने।
वीपीसिंह सरकार गिरी और चंद्रशेखर सरकार बनी तो उसमें फिर मंत्री बने। साल 1991 के चुनाव से पहले ही वे काँग्रेस में चले गए।
1991 : मुहम्मद अय्यूब खान INC से जीते। उन्होंने भाजपा के मदनलाल सैनी को हराया। जनता दल के नेता डॉ. चंद्रभान तीसरे नंबर पर रहे। धनखड़ इस चुनाव में अजमेर से खड़े हुए। लेकिन कामयाब नहीं हुए। अलबत्ता, 1993 में वे काँग्रेस की टिकट पर किशनगढ़ से विधायक चुने गए।
1996 : काँग्रेस के भीतर टूटन आई और कैप्टन अयूब भी खड़े हुए तो शीशराम ओला को AIIC(T) ने टिकट दिया। भाजपा ने मातूराम सैनी को उतारा। ओला जीते और कैप्टन अय्यूब तीसरे स्थान पर रहे।
1998 : शीशराम ओला AIIC(S) जीते। उन्होंने भाजपा के मदनलाल सैनी को हराया और काँग्रेस के जगदीप धनखड़ तीसरे स्थान पर रहे।
अरड़ावता गांव के एक किसान परिवार में 1927 में जन्मे शीशराम ओला 1948 में सरपंच बन गए थे। जिला प्रमुख भी रहे और विधायक भी। मंत्री भी। वे भी सैनिक पृष्ठभूमि के नेता थे।
1999 : शीशराम ओला इस बार INC की टिकट पर जीते और भाजपा के बनवारीलाल सैनी को हराया। इस चुनाव में सुमित्रासिंह निर्दलीय खड़ी हुईं और तीसरे नंबर पर रहीं।
2004 : शीशराम ओला INC ने संतोष अहलावत BJP को हराया। रणवीरसिंह गुढ़ा लोकजनशक्ति पार्टी से तो कैप्टन अय्यूब बसपा की टिकट पर लड़े और तीसरे और चौथे स्थान पर रहे।
2009 : शीशराम ओला INC ने भाजपा के दशरथसिंह शेखावत को हराया। दशरथसिंह संजय भाई जोशी के क़रीबी माने जाते हैं। उनके पिता जसवंतसिंह इलाके में बहुत लोकप्रिय रहे हैं। लेकिन ओला के सामने वे चुनाव नहीं जीत सके।
2014 : संतोष अहलावत BJP ने राजाबाला ओला INC को हराया। राजाबाला शीशराम ओला के बेटे विजेंद्र ओला की पत्नी हैं। इस चुनाव में डॉ. राजकुमार शर्मा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और चौथे नंबर पर रहे।
2019 : नरेंद्र कुमार BJP से सांसद बने। लेकिन वे लंबे समय से चुनावी राजनीति में सक्रिय थे और विधानसभा पहुँचने की कोशिश कर रहे थे। वे 2013 में निर्दलीय विधायक बने और अगली बार 2018 में उन्हें भाजपा ने टिकट दे दिया। इसके बाद लोकसभा चुनाव हुआ तो उन्हें उसमें उतारा गया और वे जीत गए। वे 2008 में मंडावा से जीतने वाले थे, लेकिन उनका चुनाव चिह्न क्रिकेट बैट और बॉल थे। एक निर्दलीय का चुनाव चिह्न सितार था। दोनों में एक जैसे होने का भ्रम था और कुछ हजार वोट उसे चले गए तो मामूली वोटों से नरेंद्र कुमार वह चुनाव हार गए। नरेंद्र कुमार की पुत्रवधू हर्षिनी कुल्हेरी फिलहाल झुंझुनूं की जिला प्रमुख हैं।
ग़ज़ब खेल मंढ़ गया है इस बार
2024 : मुकाबला काँग्रेस के विजेंद्र ओला और भाजपा के शुभकरण चौधरी के बीच है। विधानसभा के हिसाब से देखें तो संतुलन काँग्रेस के पक्ष में है; क्योंकि आठ विधानसभा सीटों में से छह पर काँग्रेस के विधायक हैं, जबकि भाजपा सिर्फ दो पर है। विजेंद्र ओला के पास शीशराम ओला की राजनीतिक विरासत है। लेकिन काँग्रेस के भीतर हालात सहज नहीं। भाजपा में भी हालात असहज हैं। विजेंद्र के पक्ष में एक बात ये भी है कि वे जीत जाते हैं तो झुंझुनूं विधानसभा सीट खाली हो जाएगी और इस पर जीतने की संभावना बनती है तो यह ललचाहट जितनी काँग्रेस के नेताओं के हिस्से आती है, उतनी ही भाजपा के नेताओं के हिस्से भी।
लेकिन झुंझुनूं की सियासत भी क़माल है। यहाँ हर सियासत दाँ का अज़्म इतना बुलंद है कि किसी को भी पराए शोलों का डर नहीं। हर किसी को अपनी ही आतिशे-गुल का ख़ौफ़ है कि कहीं यहीं से चमन न जल जाए!
(इस लेख के लेखक त्रिभुवन, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है। यह लेख उनके सोशल मीडिया अकाउंट X से साभार लिया गया है।)