राजस्थान सियासी संकट : जाति के दावपेंच पर चलता पायलट-गहलोत शह-मात का खेल !


राजस्थान की राजनीति में चल रहे शह और मात के खेल में सब चालें जाति को ध्यान में रखकर चली जा रही हैं. एक ओर सचिन पायलट समर्थक विधायक अपने आप को तेजा का वंशज बताकर इसे जाट समाज की अस्मिता का प्रश्न बना रहे है, तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अब तक सफल कहे जा रहे जाट जाति से संबंधित शिक्षामंत्री गोविंद सिंह डोटासरा को कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष बनाकर उपचुनाव के संकेत दे दिए है.

अशोक गहलोत ने नवीन नियुक्तियों में जातीय संतुलन को बेहतर तरीके से स्थापित करने की कोशिश की हैं. राजस्थान कांग्रेस सेवा दल के लिए राजपूत समुदाय को मौका दिया हैं. प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर आदिवासी नेता गणेश घोघरा की नियुक्ति हुई है. पश्चिमी राजस्थान से संबंध से रखने वाले युवा जाट नेता अभिषेक चौधरी की एनएसयूआई के प्रदेश अध्यक्ष पद पर नियुक्ति की.

राजनीति में जातीय आधारित भावनाओं, आकांक्षाओं की जड़ें बहुत गहरी हैं. प्रत्येक नेता जातीय भावनाओं से ग्रस्त हैं. यह बात संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ जाती हैं. संविधान में समतावादी समाज की संकल्पना न केवल प्रस्तावना में विदित है बल्कि मूल अधिकारों में इसका स्प्ष्ट उल्लेख मिलता हैं. वर्तमान राजनीतिक उठापटक में तो यही लगता हैं कि राजनीति फिर एक बार मूल्यविहीनता के दौर से गुजर रही हैं.

पायलट समर्थक विधायक पूर्व मंत्री खुद को जाति के मसीहा घोषित करने में लगे हुए हैं ताकि पद छीन जाने पर संबंधित जाति के साथ अन्याय और धोखे की बात कर सके. सभी नेता अपनी जाति के अनुसार जनता की भावनाओं के साथ खुद को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं.

गुर्जर समुदाय ने पायलट के समर्थन में अन्य गुर्जर नेताओं को नकार दिया. सोशल मीडिया पर अभद्र टिप्पणियों से आहत होकर राजस्थान सरकार में युवा एवं खेलमंत्री अशोक चांदना ने अपने फेसबुक पेज पर और ट्विटर पर पोस्ट साझा की और लिखा

जाति के खेल ने लोकदेवता तेजाजी से लेकर महाराणा प्रताप तक को मैदान में उतारा गया है. भाजपा के नेता इस खेल में अशोक गहलोत द्वारा लगाएं आरोपों को भी सिद्ध करने में लगे हुए हैं. गोविंद सिंह डोटासरा गजेंद्र सिंह शेखावत के ट्वीट पर गोविंद सिंह डोटासरा ने अपनी प्रतिक्रिया दी.

जातीय समीकरणों के अनुसार सभी नेता अपनी अपनी जाति के सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए दूसरे लोगों को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं इसमें दलित समुदाय भी पीछे नहीं रहा कांग्रेस में चल रहे फेरबदल के साथ में दलित समुदाय को कोई बड़ा पद नहीं मिलने पर सोशल मीडिया पर दलित समुदाय भी सक्रिय हो गया और एक छात्र नेता से साथ-साथ बहुत सारे लोगों ने दलितों को कांग्रेस द्वारा नहीं कुछ भी नहीं देने की बात कही. इस राजनीति के दंगल में प्रदेश के मुद्दे बहुत पीछे छूट गए .

राजस्थान में पिछले दो माह से टिड्डियों का कहर हैं जिससे किसानों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा हैं. इस मुद्दे पर किसी ने विरोध दर्ज नही करवाया न कि किसी ने किसानों की समस्या को लेकर सरकार गिराने और बनाने के बारे में चर्चा की.

कोरोना महामारी का मुद्दा लोगो के बीच से गायब हो गया, लॉकडाउन के चलते कामकाज ठप होने के कारण मजदूर रोजगार की तलाश में सरकार से उम्मीद लगाए बैठे हैं उनकी किसी को खबर तक नही हैं. सरकार यहां पर गिरने और बनाने के लिए नेता अपनी-अपनी राजनीति और कूटनीतिक चालो में व्यस्त हैं.

राजनीति में जाति की क्या भूमिका होती है यह आसानी से समझा जा सकता है इन सब मुद्दों के साथ इंसानियत बहुत पीछे छूट गई है हर व्यक्ति अपनी जाति के घमंड में इंसानियत को भूलता जा रहा है जो लोकतंत्र के लिए तो खतरा है ही मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा है. जिन लोगों को सामाजिक समानता और समरसता लाने के लिए जनता ने चुनकर सरकार में भेजा आज वही लोग अपनी जाति के घमंड के नाम पर राजनीतिकरण पर उतर आए हैं. क्या यह जातीय राजनीति इस लोकतंत्र की सबसे बड़ी पीड़ा है!

देश आजादी के 70 साल बाद में भी जाति व्यवस्था से क्यों ऊपर नहीं उठ पा रहा है! क्या राजनीति में जातीय समीकरण का बोलबाला हमेशा बना रहेगा!. इस शह मात के राजनैतिक दंगल में जातीय नेताओं को लोकतंत्र को बचाये रखने की जिम्मेदारी देकर हम विकास की बात करें तो यह हमारी मूर्खता होगी. ज्वलंत प्रश्न यह है कि आजादी के 70 साल बाद भी भारतीय लोकतंत्र अभी तक जाति के दालदल से बाहर क्यों नही निकल पा रहा हैं?

– सुरेश अलखपुरा (लेखक युवा पत्रकार हैं।)

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