-M.Mirza
औरत ! इतिहास की मज़लूमतरीन मख़लूक़, औरत पर सबसे बड़ा ज़ुल्म तो यही हुआ की उसके आज़ाद वजूद को “पुरुष प्रधान” समाज ने कभी क़ुबूल नहीं किया, समाज के एक अंग को जान बूझ कर अपाहिज बना दिया गया, कभी औरत को बेरूह हैवान समझा गया तो कभी दासी बना लिया गया, और कभी औरत ईमान के लिए “ख़तरा” हो गयी, किसी ने उसके लबों को सी कर बोलने की आज़ादी छीन ली तो किसी ने तन से लिबास छीन लिया, औरत को पुरुषों ने अपनी “प्रधानता” बचाने के लिए कभी चार दिवारी में क़ैद किया तो उसी “प्रधानता” को बचाने ले लिए कभी उसे भीड़ की शक्ल में सड़कों पर उतार दिया ।
… अगर कभी औरत ने अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने की कोशिश की तो उसे धर्म के ख़िलाफ़ युद्ध क़रार दे दिया गया… और ज़ुल्म पर ज़ुल्म ये की औरत को ये समझाया गया की ये ज़ुल्म ही उसका “गौरव” है…
इक्कीसवी सदी में अगर कुछ बदला है तो शोषण का तरीक़ा बदला है, अब हम “महिला दिवस” मनाने लगे हैं, यानी साल भर औरत का उत्पीड़न, शोषण और अत्याचार के बदले एक दिन का “सामूहिक विलाप”