मोदी सरकार की अंतिम अंतरिम बजट 2019-20 में कुल 27 बार किसान शब्द का प्रयोग किया गया और सरकार ने लगभग 75000 करोड रुपए की प्रधानमंत्री किसान योजना का किसानों को तोहफा दिया,जिसमें 2 हेक्टेयर तक के लघु व सीमांत किसानों को 2-2 हजार की तीन किश्त अर्थात कूल ₹6000 वार्षिक सहायता राशि दिए जाने की घोषणा को ऐतिहासिक करार भी दिया।
ऐतिहासिक इसलिए भी कि इस योजना का फायदा लगभग 11 करोड़ 68 हजार किसानों को प्राप्त होगा। पूरे बजट में बार-बार 2022-23 तक किसानों की आमदनी दुगनी किए जाने के संकल्प को दोहराया गया और इस बात को भी दोहराया गया कि किसानों की स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लागत के ड्योडा भाव की ऐतिहासिक मांग को, 22 जींसो के न्यूनतम समर्थन मूल्य में पूरा कर दिया गया है।
वास्तव में एक जागरूक नागरिक के दृष्टिकोण से यह आवश्यक हो जाता है कि इन सभी दावों की सच्चाई का तार्किक और तथ्यात्मक दृष्टि से पड़ताल की जाए।
वर्तमान मोदी सरकार के विगत 4 वर्षों में सरकार तथा पार्टी के द्वारा बार-बार जिस बात का सबसे ज्यादा दावा किया गया कि सरकार 2022-23 तक किसानों की आमदनी दुगनी की जाएगी वस्तुतः अब तक के पांच बजट में इस प्रकार की किसी भी कार्य योजना का कोई मॉडल या रूपरेखा प्रस्तुत नहीं की गई।
सबसे पहले वर्ष 2016 के बजट में यह वाक्य वित्त मंत्री द्वारा पढ़ा गया था।
जब इस बात का उद्घाटन किया गया था तब वस्तुतः यह निर्धारित ही नहीं था कि यहां आमदनी दुगनी करने का तात्पर्य क्या होगा ? यदि आमदनी दुगनी करने का तात्पर्य यह है कि किसान की जेब में 2022 तक दुगनी मात्रा में भारतीय मुद्रा पहुंचा दी जाए,तो इसे अर्थशास्त्री दृष्टि से केवल कागजी या काल्पनिक आमदनी ही कहा जाता हैं।
क्योंकि भारतीय मुद्रा का जिस प्रकार अवमूल्यन हो रहा है उस दृष्टि से 8 से 10 वर्षों में सरकार के बिना प्रयासों के ही कागजी मुद्रा दुगनी हो जाती है लेकिन उस मुद्रा की क्रय क्षमता समान बनी रहती हैं। जैसे अगर कोई मजदूर वर्तमान में ₹300 प्रतिदिन कमाता है और 10 वर्ष पश्चात अगर वह ₹600 प्रतिदिन कमाने लग जाए तो इसे आमदनी दुगनी होना नहीं कहा जाता जा सकता।
वस्तुतः आमदनी दुगनी होने का तात्पर्य यह होता है कि वास्तविक मुद्रा अर्थात किसान की क्रय क्षमता भी दुगनी होनी चाहिये।
लेकिन जब पड़ताल की गई तो पता चला कि किसान की आमदनी के वर्ष 2016 के कोई डाटा थे ही नहीं। अंतिम बार वर्ष 2012-13 में राष्ट्रीय सर्वेक्षण सैंपल संगठन (एनएसएसओ) द्वारा किसान परिवार की आमदनी के डाटा जारी किए गए थे जिसके अनुसार तब एक किसान परिवार की औसत आमदनी ₹6426 थी जिसमें खेतीबाड़ी से आमदनी सिर्फ ₹3080 थी। इसमें भी अलग-अलग राज्यों के किसानों की आमदनी में बहुत अधिक अंतर था जैसे पंजाब के किसान की वार्षिक आमदनी ₹18059 जबकि बिहार के किसान की वास्तविक आमदनी ₹3558 थी। भारत सरकार ने वर्ष 2017 में इस मुद्दे पर नीति आयोग की एक कमेटी का गठन किया,जिसने वर्ष 2017 के अंत में अपनी रिपोर्ट में कहा कि उस समय अर्थात 2017 में तात्कालिक रुपए की कीमत के अनुसार किसान की वार्षिक आमदनी ₹8058 थी। अगर इसे 2012 के रुपए की कीमत के आधार पर आंकलन किया जाए तो यह आमदनी ₹6175 बैठती है।
इसका अर्थ यह हुआ कि 2012-13 से 2017 के बीच किसान की आमदनी में बढ़ोतरी होने की बजाय ₹1632 की कमी हुई। यहां यह बहुत ही विरोधाभास है कि एक और सरकार आमदनी बढ़ाने का संकल्प जता रही थी।
तो दूसरी ओर नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार किसान की वास्तविक आमदनी कम हो रही थी।
इस समिति ने ही आकलन करके बताया कि 2022-23 तक किसान की वास्तविक आमदनी दुगनी होने का तात्पर्य है कि किसान की वार्षिक आमदनी ₹20250 हो जाए। इस दृष्टि से अगर आकलन किया जाए तो प्रतिवर्ष 10.4% की वार्षिक कृषि विकास दर की आवश्यकता होगी, जो न तो कभी इतिहास में रही और ना ही किसी भी अर्थशास्त्री और कृषि विशेषज्ञ की दृष्टि से संभव प्रतीत होती हैं।
और ना ही सरकार की कोई ऐसी कार्ययोजना धरातल पर दिखाई देती है जिससे कृषि की विकास दर इतनी ऊंची (10.4%) ऐतिहासिक विकास दर की कल्पना की जा सके जा सके।
यहां यह आवश्यक हो जाता है कि विगत वर्षों में कृषि की विकास दर की जांच पड़ताल की जाए, जिससे कि किसान के दुगनी आमदनी के दावे का सच जानना जा सके। वर्ष 2014 में कृषि विकास दर 4.1% रही जो वर्ष 2018 1.9% आ गई।
अगर विगत 4 वर्षों की कृषि विकास दर का औसत निकाला जाए तो यह 2.2% है। यह किसी भी दृष्टि से समझ में नहीं आ रहा है कि एक और कृषि विकास दर निरंतर कम होती जा रही है और दूसरी ओर सरकार 2022-23 तक किसान की आमदनी दोगुनी करने का दावा करती हैं।
अगर तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर इस दावे कि पडताल की जाए तो सरकार का यह एतिहासिक दावा पूर्णतया अतार्किक और ख्याली पुलाव प्रतीत होता हैं। विगत 4 वर्षों के औसत कृषि विकास दर(2.2%) के आधार पर अगर अनुमान लगाया जाए किसान की आमदनी दोगुनी होने में 50 वर्ष अधिक का समय लगेगा |
अगर सरकार अपनी इस घोषणा के प्रति गंभीर होती तो उसे चार कदम उठाने चाहिए थे 1- लक्ष्य का निर्धारण, 2- योजना का निर्माण, 3- संसाधनों का आवंटन, 4- प्रगति की समीक्षा| लक्ष्य के निर्धारण को प्रतिवर्ष लक्ष्य में रूपांतरित किए जाने की आवश्यकता है इसमें भी लक्ष्य को अलग-अलग भागों में बांटना होगा जैसे खेतीबाड़ी से कितनी आमदनी बढ़ सकती है, पशुपालन से कितनी आमदनी बढ सकती है, इसी तरह मजदूरी और अन्य व्यवसाय से किसान की आमदनी कितनी बढ़ाया जा सकता हैं।
दूसरी और बिना संसाधनों के आवंटन के किसी भी योजना की त करना या किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति कि उम्मीद करना मजाक ही हो सकता हैं।
लेकिन केंद्र सरकार कृषि के मामले में उपरोक्त जरूरी कदमों को उठाने में पूर्णतया असफल रही हैं। अव्वल तो किसी प्रकार के स्पष्ट लक्ष्य और लक्ष्यों का विभाजन किया ही नही गया और ना ही कृषि के क्षेत्र में संसाधनों के आवंटन में कोई विशेष वृद्धि देखी गई।
अगर कुल बजट में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी को देखा जाए। जिससे कि बेहतर मूल्यांकन संभव हो सके | वर्ष 2013-14 मे यह 2.1% थी जिसे वर्तमान मोदी सरकार के पहले बजट में घटकर 1.9 % किया गया, फिर आगामी वर्षों में क्रमशः 2.0% ,2.3%,2.3%, तथा 2.4 % किया गया |
इसमें भी हाथ की सफाई की गई है क्योंकि वर्तमान सरकार ने कृषि के बजट में चुपचाप बजट की एक महत्वपूर्ण मद, किसानों को फसली लोन पर दिए जाने वाले ब्याज की सब्सिडी को वित्त मंत्रालय से हटाकर, कृषि बजट में सम्मिलित कर लिया।
इस प्रकार कृषि बजट में वास्तविक धरातल पर किसी प्रकार की बढ़ोतरी नही की गई है। इतना ही नहीं कृषि बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट के फायदे के लिए खर्च किया जा रहा हैं। क्योंकि 2014-15 में बजट का 8.1% हिस्सा फसल बीमा पर खर्च हुआ था जो 2018-19 के बजट लगभग 3 गुना बढ़कर 22.6% कर दिया गया है। यह जगजाहिर है कि फसल बीमा योजना से किसानों को किसी प्रकार प्रकार से लाभ प्राप्त नहीं हुआ, अपितू बीमा कंपनियों का लाभ 30% जरूर बढ़ गया है।
बजट में जो दूसरा दावा किया गया है कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार किसान लागत के ड्योड़ा दाम के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) घोषित कर दिया गया है वस्तुतः यह दावा भी पूर्णता गलत तथ्यों पर आधारित हैं। अव्वल तो केवल 25 जिंसो की ही न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है।
दूसरी और एमएसपी पर केवल 6% खरीदी ही अभी तक सुनिश्चित हो पाई हैं। अतः इस प्रकार की घोषणाओं का किसान की आमदनी बढ़ाने से कोई सीधा संबंध नही होता हैा लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सरकार ने जिस फार्मूले के तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य का दावा किया है वस्तुतः वह आंशिक लागत को आधार मानकर किया गया हैं। जबकि स्वामीनाथन आयोग ने पूर्ण लागत को जिसमें कृषि मजदूरी, मूल्यह्रास तथा जमीन के रेंटल मूल्य को भी सम्मिलित किया गया है जिसे स्वामीनाथन आयोग ने C-2 फॉर्मूला कहा था उसके आधार पर लागत का 50% लाभकारी मूल्य दिए जाने की सिफारिश की थी।
केंद्र सरकार ने किसान की आमदनी दुगनी करने के नाम पर एक समिति का गठन किया गया, जिसकी सिफारिशों पर अमल करने लिए फिर से सरकार ने एक समिति गठित कर दी हैं। किसान की खुशहाली के लिए आवश्यकता समितियों के गठन की नहीं है अपितु धरातल पर किसान के लिए योजनाओं को कार्य रूप देने की आवश्यकता हैं। इसके लिए सरकार की मजबूत इच्छाशक्ति का होना पहली शर्त है किसान को आंकड़ों की जादूगरी और ऋण माफी जैसी वोट बटोरने की योजना के स्थान पर ऋण मुक्ति हेतु ठोस कदम उठाना होगा, जिससे कि किसान ऋण के जाल में नहीं फंसे | ऐसा तभी संभव है जब सरकार एक ओर कृषि क्षेत्र में जीडीपी तथा जनसंख्या के अनुपात में कृषि बजट में वास्तविक बढ़ोत्तरी करनी होगी, जिससे कृषि क्षेत्र में शोध अनुसंधान को बढ़ाया जा सके। दूसरी ओर किसान को उसकी उपज का वाजिब दाम प्राप्त हो,इसके लिए आवश्यकता न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की घोषणा की नहीं है क्योंकि वैसे भी न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल बाजार की महंगाई को नियंत्रित करने के उद्देश्य से घोषित किया जाता हैं। केवल 25 जिंसो पर घोषित इस न्यूनतम समर्थन मूल्य पर वैसे भी केवल 6% की खरीद सुनिश्चित होती हैं। आवश्यकता न्यूनतम खरीद मूल्य अर्थात मिनिमम पर्चेर्जिंग रेट निर्धारित करने की है यह दर एकमात्र 2004 मे गठित किसान आयोग अर्थात स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसा के अनुसार कृषि की वास्तविक लागत के ( C-2 फॉर्मूला) 50% लाभकारी मूल्य होना चाहिए |
अगर कोई भी सरकार किसान के प्रति वास्तविक रूप से संवेदनशील और किसान की आमदनी दुगना करने की इच्छा शक्ति रखे तो, यह कोई असंभव कार्य भी नहीं है लेकिन यह विडंबना ही कहा जाएगा कि किसान को सिर्फ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आवश्यकता भारतीय राजनीति के स्वरुप में बदलाव की है जिससे कि किसान राजनीति और सरकार के केंद्र में स्थापित हो सके। वर्तमान युद्ध कालीन वातावरण में किसान के मुद्दो का गौण होना भारतीय राजनीति और किसान के दृष्टिकोण से बहुत ही चिंतनीय विषय कहा जा सकता है।
सी.बी.यादव
(लेखक राजस्थान विश्वविध्यालय में अस्सिटेंट प्रोफ़ेसर हैं)