–Musaddiq Mubeen
मुझे आज भी याद है , एक मर्तबा एक साक्षात्कार में पूछा गया था: हू इज़ योर फ़ेवरेट पॉलिटिशियन’?
मैंने फ़ौरन एक सेकंड की भी देर न करते करते हुए जवाब दिया था शशि थरूर ? नहीं ‘योगेंद्र यादव’ !
इंटरव्यू लेने वाले ज़रा चोंके ! गालिबन सोचे होंगे यह कोनसा राजनीतिज्ञ आ गया भाई ? कभी विधायक तो दूर की बात , पंचायत का चुनाव तक न जीते और यह फेवरेट पॉलिटिशियन। बात यह कि न मेरा राजनीतिज्ञ ‘महज़ चुनाव् लड़ने’ और ‘जीतने’ वाला हो सकता है न मेरी राजनीतिक समझ महज़ ‘चुनाव् लड़ने’ और जीतने तक सीमित होनी चाहिए ।
योगेंद्र यादव को मैं पिछले दो तीन सालों से क़रीब से समझने की कोशिश् की है , उनका तक़रीबन हर आर्टिकल, डिबेट, फ़ेसबुक पोस्ट और ट्वीट्स बहुत दिलचस्पी से पढ़े हैं । उनकी एक्टिविटीज और जिद्दोजहद को बहुत इश्तियाक़ से देखा है । वो मेरे लिए इधर वैचारिक और इल्मी दुनिया के शम्मा महफ़िल भी है और उधर मैदान अम्ल के ‘सिपहसालार’ भी । जो बोलते है उसके लिए पसीना बहाते हैं । टीवी स्टुडियोज़ में नयी नयी इस्तेलाहात , दार्शनिक बातें और नुक़्ता चीनियां आसान काम है । और ज़्यादा से ज़्यादा जंतर मन्त्र पर हाई प्रोफाइल धरना पदर्शन और टीवी बाइट्स की नुमाइश भी बहुत आसान है । लेकिन जिस बात को बोल रहे हैं उसके लिए खून जिगर लगाना, आँखों का तेल जला देना और हमातन सारी ज़िन्दगी को वक़्फ़ कर देना अज़ीम और महान काम है । यादव की ज़िन्दगी इसका व्यवहारिक रूप है ।इसीलिये मेरे लिए सही मायनों में वो पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं । किसानों की समस्या का दर्द भी अपने सीने में रखते हैं, उसके के लिए लेख भी लिखते है , बहसों में हिस्सा भी लेते है । मंडी मंडी जाकर mSp की समीक्षा भी करते है । किसानो को जाकर अपने अधिकारों के लिए जागृत भी करते है । सरकार और प्रशासन के खिलाफ अपने प्रोटेस्ट को दर्ज भी कराते हैं । यही दौड़धूप सूखाग्रस्त इलाक़ों और आम जन की दूसरी आम समस्याओं के लिए भी की ।
दूसरी अहम बात यादव की ‘बेबाकी’ और बे लाग लपेट अपनी बात रखने की जुर्रत और हौसला है । जो गलत लगता है बोलते हैं । कांग्रेस को भी उतना ही आड़े हाथों लेते हैं जितना बी जी पी को । सामाजिक न्याय के योद्धाओं की भी उतनी ही खबर लेते है जितनी कांग्रेस की । वामपंथियों को भी उतना ही धोते है जितना RJD, JDU और समाजवादी पार्टी को । उनके इस रवैये से उनके विरोधी उन्हें ‘निरा आदर्शवादी’ कहते हैं । मेरा यह ख्याल है कि अगर ऐसा करना आदर्शवाद है तो हक़ बोलना और गैर जानिबदार होने के क्या अर्थ बाक़ी रह जाते हैं ? वैचारिक तौर पर न्यायपसन्द होने के क्या माने रह जाते हैं ?
कल जैसे ही रेवाड़ी में किसानों के लिए 9 दिन की पदयात्रा ख़त्म हुई, तुरंत सरकार ने उनकी बहन और जीजा के हॉस्पिटल पर आयकर विभाग का छापा पड़वा दिया। स्थानीय लोगों और पत्रकारों का कहना है उस नर्सिंग होम की छवि पूरे इलाके में एक अच्छे और नेक हॉस्पिटल की है। इसलिए उस पर रेड पड़ने से सरकार की प्रतिशोधात्मक कार्यवाही की बू आरही है । खुद यादव ने एक बयान में कहा भी है उनकी बहन स्वराज इंडिया को चंदा भी देती आयी है । इसलिए बदले की राजनीति वाली बात पर यक़ीन और बढ़ जाता है।
हफ़ीज़ मेरठी ने ऐसे ही हालात के लिए कहा होगा
’किसी जबीं पर शिकन नहीं है कोई भी मुझसे ख़फ़ा नहीं है
बगौर मेरा पयाम शायद अभी जहाँ ने सुना नहीं है
सरकार ने उनका पयाम और पैग़ाम दोनों सुन लिए है इसलिए माथे पर शिकन आना आवश्यक है ।
देश विदेश में विख्यात इतना बडा राजनीतिशास्त्री, प्रोफेसर, और सेफोलॉजिस्ट चाहता तो जीवन को किसी और मोड़ पर भी ले जा सकता था, जहाँ भौतिक सुख,पैसा , घर बार सब कुछ ऊंचा कर लेता लेकिन इंसान ऊंचा दूसरों के लिए जीने में बनता है अपने लिए तो ‘नीचे’ लोग जीते हैं ।
आज ज़रूरत है हम सब को यादव् के साथ खड़े होने की और उनके साथ सॉलिडेरिटी व्यक्त करने की । हमारा यह खड़ा होना अपने लिए, अपने मूल्यों के लिए और अपने भविष्य के लिए खड़ा होना है ।
अहमद फ़राज़ ने कहा था :
‘शिकवा ए जुल्मते शब् से तो कहीं बहतर था
अपने हिस्से की कोई शमा जलाते जाते ‘
#InSolidarityWithYogendraYadav
(लेखक छात्र विमर्श पत्रिका के संपादक है)