2014 की ही बात है बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनावों में वाराणसी और वडोदरा दो जगहों से चुनाव में उतरे थे। दो सीटों से चुनाव लड़ने का नरेन्द्र मोदी का उद्देश्य स्पष्ट था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के समर्थन के अलावा पूरे राज्यों में मोदी की सामूहिक अपील का प्रदर्शन किया जाए।
दोनों सीटों पर से जीतने के बाद पीएम मोदी ने वाराणसी को बरकरार रखा और वडोदरा को छोड़ दिया। दो सीटों पर चुनाव लड़ने का एक पहलू यह भी है कि इससे आप एक ही चुनाव में दो जगहों पर अपना प्रभुत्व दिखा पाते हो, खुद को प्रोजेक्ट कर पाते हो।
पिछले कई सालों में कई बड़े नेताओं ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों में एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ा है। 1996 तक तो कई ने तीन सीटों पर भी चुनाव लड़ा था। लेकिन इसके बाद जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में एक संशोधन किया और कानून ये बना कि एक उम्मीदवार दो सीटों पर ही चुनाव लड़ सकता है और जब भी वे दोनों पर जीत दर्ज करते हैं तो उम्मीदवारों को केवल एक सीट बरकरार रखनी होती है और दूसरी उपचुनाव के लिए जाती है।
मूल 1951 अधिनियम में धारा 33 ने एक व्यक्ति को एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जबकि अधिनियम की धारा 70 ने उसे राज्य या केंद्रीय विधानसभाओं में एक से अधिक सीट पर रोक दिया। 1957 के लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनसंघ बढ़ने की कोशिश कर रहा था तब अटल बिहारी वाजपेयी ने यूपी के तीन निर्वाचन क्षेत्रों बलरामपुर, मथुरा और लखनऊ तीन सीटों पर अपना लक आजमाया था।
1952 के चुनाव में लखनऊ में तीसरे स्थान पर रहने के बाद वाजपेयी बलरामपुर से निर्वाचित हुए। इसके अलावा लखनऊ में दूसरे स्थान पर रहे। बलरामपुर जीत ने युवा अटल बिहारी को विपक्षी नेता के रूप में लोकसभा में पेश किया तब कांग्रेस का वर्चस्व था।
1977 में इंदिरा गांधी को अपने फेमस निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में आश्चर्यजनक हार का सामना करना पड़ा। 1980 में वह फिर से जोखिम नहीं उठाना चाहती थी। इंदिरा गांधी ने मेदक (अब तेलंगाना) और रायबरेली से पर्चा भरा। इंदिरा गांधी ने इस बार दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से जीत हासिल की।
1996 के संशोधन के पहले और बाद में भी कई नेताओं ने इसी चीज को जारी रखा। वाजपेयी (1991 में विदिशा और लखनऊ), लालकृष्ण आडवाणी (1991 में नई दिल्ली और गांधीनगर), सोनिया गांधी (1999 में बेल्लारी और अमेठी) , मुलायम सिंह यादव (2014 में आजमगढ़ और मैनपुरी) और लालू प्रसाद (2009 में सारण और पाटलिपुत्र) ने एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा था।
क्षेत्रीय नेताओं ने इस फैशन को दूसरे स्तर पर ले लिया। तेलुगु देशम पार्टी के संस्थापक एन टी रामाराव ने 1985 के विधानसभा चुनावों में गुडीवाड़ा, हिंदूपुर और नलगोंडा तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और सभी में जीत हासिल की। फिर हिंदूपुर को बरकरार रखा और अन्य दो को खाली कर दिया जिसके बाद वहां उपचुनाव हुए।
1991 में हरियाणा की उप-मुख्यमंत्री देवीलाल ने तो और भी कमाल कर दिया उन्होंने उस वक्त तीन लोकसभा सीटों सीकर, रोहतक और फ़िरोज़पुर के साथ ही घिरई विधानसभा सीट से भी चुनाव लड़ा। सभी पर हार का सामना करना पड़ा। अगर वह हर जगह जीत जाती तो तीन उपचुनाव जरूरी हो जाते। इसको लेकर भारतीय निर्वाचन आयोग अपील करता रहा है कि उम्मीदवारों को एक ही सीट से चुनाव लड़ने देना चाहिए।
वहीं इस कानून पर किसी भी तरह का बदलाव नहीं किया गया है। एक उम्मीदवार अभी भी दो सीटों पर चुनाव लड़ सकता है और अगर जीतता है तो एक को छोड़ सकता है। निर्वाचन आयोग का हमेशा से यह तर्क रहा है कि एक सीट जो कि उम्मीदवारों द्वारा छोड़ी जाती है उस पर दुबारा चुनाव में काफी खर्च होता है।