जनमानस विशेष

बुलडोज़र संस्कृति का उदय मानवाधिकारों और क़ानून के शासन के लिए ख़तरा

By Raheem Khan

September 03, 2024

डॉ. मुहम्मद इक़बाल सिद्दीक़ी

 “मेरी एक विकलांग बेटी है। रिश्तेदारों ने किसी भी प्रकार की मदद या शरण देने से इंकार कर दिया है, इस डर से कि कहीं इसी तरह उनके घर भी न गिरा दिये जाएं। मुझे नहीं पता कि अब कहाँ जाऊं।” ये मार्मिक शब्द उस माँ की पीड़ा को व्यक्त करते हैं, जिसे 20 अगस्त 2024 को राजस्थान के उदयपुर में अधिकारियों द्वारा उसका घर गिरा कर बेघर कर दिया गया।

उसके 15 वर्षीय बेटे, पर उसके सहपाठी की हत्या करने का आरोप लगा था और उसे गिरफ्तार कर लिया गया था। यही नहीं, बिना कोई स्पष्ट कारण बताए उसके पिता, सलीम शेख़ को भी हिरासत में ले लिया गया। बस्ती में 200 से अधिक घर हैं लेकिन केवल सलीम शेख़ के किराए के मकान को ही चिह्नित कर के बिना किसी उचित प्रक्रिया और ठोस क़ानूनी आधार के बुलडोज़र से गिरा दिया गया, जिससे पूरा परिवार बेघर हो गया है। यही नहीं उस मकान में रहने वाला एक अन्य किरायेदार परिवार भी इसकी ज़द में आ गया। 

यह घटना भारत में “बुलडोजर न्याय” या “बुलडोजर संस्कृति” के बढ़ते ख़तरे का खुला प्रमाण है, जहां अल्पसंख्यक समुदायों को चुन-चुनकर निशाना बनाया रहा है। इस प्रकार की कार्यवाइयाँ, जो देश के विभिन्न भागों में हो रही हैं मानवाधिकारों और लोकतंत्र के लिए बड़ा ख़तरा हैं।

विनाश और विस्थापन का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

हालांकि बुलडोजर संस्कृति लोगों को नई बात लग सकती है, लेकिन इसके उदाहरण हमें इतिहास में भी मिलते हैं, 2014 में  भाजपा के सत्ता में आने के बाद इसका चलन बढ़ा है। पार्टी ने अपने एजेंडे के तहत अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाते हुए शहरी विकास और अवैध निर्माण हटाने के नाम पर इसका बे-लगाम इस्तैमाल किया है और इसे अपनी विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान के रूप में प्रस्तुत किया है।

इससे पहले की सरकार ने भी नगर सौंदर्यीकरण और बुनियादी ढांचे (इंफ्रास्ट्रक्चर) के विकास के नाम पर झुग्गी-झोपड़ियों को हटाने का अभियान चलाया था। 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली में इस प्रवृत्ति का उदाहरण देखा गया, जब बड़े पैमाने पर शहरी परियोजनाओं के लिए 100,000 से अधिक लोगों को विस्थापित कर दिया गया, और विकास के नाम पर ग़रीब एवं वंचित समूहों के अधिकारों का हनन किया गया।

उपरोक्त मिसालों ने बुलडोज़र न्याय के लिए मंच तैयार किया, अब भाजपा सरकार के तहत ‘शहरी नियोजन’, ‘सौंदर्यीकरण’ और ‘अवैध निर्माण गिराने’ को विशेष रूप से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ हथियार के रूप में इस्तैमाल किया जा रहा है।

हालिया घटनाक्रम: बढ़ती चिंताओं का संकेत

हाल के महीनों में, ”बुलडोजर संस्कृति“ में तेज़ी आई है और देशभर में विध्वंस और जबरन बेदख़ली की घटनाएं आम होती जा रही हैं। विशेष रूप से अप्रैल 2022 में, उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने तथाकथित “अवैध” संरचनाओं, जिसमें घर और व्यवसाय दोनों शामिल थे, को ध्वस्त करने के लिए राज्यव्यापी अभियान शुरू किया, जिसमें न तो उचित प्रक्रिया अपनाई गई और न पर्याप्त चेतावनी ही दी गई। “ऑपरेशन क्लीन ड्राइव” के नाम से मशहूर इस अभियान में बुलडोजरों का व्यापक रूप से उपयोग किया गया, जिससे हज़ारों लोग बेघर हो गए और उनकी आजीविका छिन गई।

इसी तरह का एक अभियान जून 2022 में भाजपा-नियंत्रित दिल्ली नगर निगम द्वारा शुरू किया गया था, जिसमें शहर की झुग्गियों कों “अवैध संरचनाओं” का नाम दे कर निशाना बनाया गया। यहां भी, बुलडोज़रों का उपयोग करके घरों और व्यवसायों को ध्वस्त किया गया, अक्सर प्रभावित लोग बुनियादी आवश्यकताओं जैसे भोजन, पानी, और आश्रय तक से वंचित हो गए।

राजनीतिक मंसूबे और बुलडोजर की राजनीति

भारत में बुलडोजर संस्कृति का उदय केवल शहरी नियोजन या कानून एवं व्यवस्था की स्थापना तक सीमित नहीं है; यह सत्तारूढ़ पार्टी के व्यापक राजनीतिक एजेंडे से गहराई से जुड़ा हुआ है। सतही तौर पर, इन कार्रवाइयों को शहरों को “साफ“ करने और नए इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जगह बनाने के आवश्यक उपायों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। हालांकि, इसका उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से मुसलमानों और दलितों को हाशिए पर डालना और मुख्य धारा से बाहर करना है। इन दिनों चुनिन्दा ढंग से इन्ही समूहों को बुलडोज़र का शिकार बनाया जाना इस एजेंडे का एक स्पष्ट प्रमाण है।

आधुनिक भारतीय राजनीति में बुलडोज़र एक शक्तिशाली राजनीतिक प्रतीक के रूप में उभरा है, विशेष रूप से भाजपा-शासित राज्यों में, जो राज्य की प्राधिकृति और सत्तारूढ़ पार्टी की शक्ति को स्थापित करने के लिए कानूनी मानदंडों को दरकिनार करने में भी हिचकिचाता नहीं है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ – जिन्हें आजकल “बुलडोजर बाबा“ के नाम से जाना जाने लगा है – ने बुलडोज़र का उपयोग अपनी मज़बूत छवि के प्रतीक के रूप में किया है, यही नहीं इसे चुनावी रैलियों में भी प्रदर्शित किया गया। उन्होंने बुलडोज़र के माध्यम से उनकी सत्ता के विरोधियों को स्पष्ट संदेश दे दिया है। बुलडोज़र का यह प्रतीकात्मक उपयोग केवल क़ानून एवं व्यवस्था की बहाली के लिये नहीं है बल्कि यह असहमति रखने वालों और अल्पसंख्यक समुदायों को डराने के लिए एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है, कि “सरकार को चुनौती दी तो कुचल दिये जाओगे।“

यह दृष्टिकोण, जो कुछ मतदाता वर्गों के लिए शासन की ओर से एक निर्णायक संदेश भी है लोकतांत्रिक मानदंडों और क़ानून के शासन का घोर उल्लंघन है। इस प्रकार, बुलडोज़र संस्कृति सत्तारूढ़ पार्टी के साथ असहमति के स्वरों को दबाने और विपक्ष को कुचलने का कुत्सित प्रयास है, जिससे डर और दमन का एक माहौल बनता है और लोकतंत्र की नींव कमज़ोर होती है।

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून और बुलडोज़र संस्कृति

बुलडोज़र संस्कृति अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून का खुला उल्लंघन है। यह क़ानून किन्ही समूहों को दंडित और भयभीत करने के लिए मनमाने और भेदभावपूर्ण ढंग से राज्य शक्ति के उपयोग पर रोक लगाता है। अंतर्राष्ट्रीय नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर संधि और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय संधि दोनों जीवन, स्वतंत्रता और व्यक्ति की सुरक्षा के अधिकार के साथ-साथ मनमानी पाबंदियों और जबरन निष्कासन से मुक्ति के अधिकार की गारंटी देते हैं।

इन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद, देश में इन दिनों बुलडोज़रों का उपयोग, सत्ता विरोधियों और वंचित समूहों, विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय को लक्षित करते हुए दंड के एक उपकरण के रूप में किया जा रहा है। ये कार्रवाइयाँ न केवल मानवाधिकार संगठनों की आलोचना का कारण बन रही हैं, बल्कि क़ानून के शासन के प्रति प्रतिबद्ध एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत की वैश्विक छवि को भी धूमिल कर रही हैं।

अकबर नगर का मामला

लखनऊ के अकबर नगर, जहाँ मुख्य रूप से मुसलमान और दलित निवास करते हैं, की दुर्दशा “बुलडोजर न्याय” का एक ज्वलंत उदाहरण है। क्षेत्र को ’स्मार्ट सिटी’ में बदलने के नाम पर, अधिकारियों ने घरों को ख़ाली कराने और गिराने का अभियान चलाया जिससे कई परिवार बेघर हो गए हैं। इन हाशिए पर पड़े समुदायों के आवास और भूमि जैसे अधिकारों को बुलडोज़र तले कुचल दिया गया है। स्वाभाविक रूप से लोगों में व्यापक आक्रोश है, जिसका सरकार पर कितना असर होगा, यह स्पष्ट है।

ये अभियान जो शहरी विकास और सौंदर्यीकरण के नाम पर चलाए जा रहे हैं, समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों को प्रभावित कर रहे हैं। इन कार्रवाइयों के पीछे की वास्तविक मंशा पर सवाल उठ रहे हैं जो उचित भी हैं। आलोचकों का कहना है कि ये अभियान वास्तव में अल्पसंख्यक समुदायों को हाशिए पर डालने और विस्थापित करने की एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा हैं।

मानवाधिकारों पर मंडराता खतरा: न्यायिक दृष्टिकोण

भारत में बुलडोजर संस्कृति का उदय मानवाधिकारों और कानून के शासन के लिए गंभीर खतरा है। इस प्रकार की किसी भी कार्रवाई में प्रशासन की ओर से उचित प्रक्रिया, प्राकृतिक न्याय और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की पालना नहीं की गई है। बिना उचित नोटिस या सुनवाई के इन कार्रवाइयों को अंजाम देकर, राज्य भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जो शक्ति के मनमाने उपयोग के लिए एक ख़तरनाक मिसाल है। जहाँ इन कार्रवाइयों के फलस्वरूप वंचित वर्ग के लोग बुरी तरह प्रभावित होते हैं वहीं इनसे विभिन्न समुदायों के बीच तनाव पैदा होता है और परिणामस्वरूप सामाजिक एकता का ताना-बाना कमज़ोर होता है। भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने इन कार्रवाइयों की व्यापक रूप से निंदा की है, और इन्हें मौलिक मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन माना है। इन संगठनों ने भारत सरकार से सभी नागरिकों के अधिकारों और गरिमा की रक्षा के लिए तत्काल क़दम उठाने की मांग की है।

जवाबदेही की जरूरत और न्याय की मांग

बुलडोज़र संस्कृति का उदय भारत में राज्य शक्ति के प्रयोग का एक चिंताजनक प्रदर्शन है, जिसे सत्तारूढ़ पार्टी ने निहित स्वार्थ सिद्ध का साधन बनाया है, इससे उन्हें अपनी विचारधारा को लागू करने और कमज़ोर समुदायों को हाशिए पर रखने में मदद मिलती है। यह प्रवृत्ति भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को कमज़ोर कर रही है और मानवाधिकारों और क़ानून के शासन के लिए एक गंभीर चुनौती है।

भारतीय नागरिक एक ऐसी सरकार के हक़दार हैं, जो सभी नागरिकों के लिए निष्पक्षता, समानता और व्यक्तिगत गरिमा की सुरक्षा को प्राथमिकता दे। बुलडोज़र से केवल भौतिक संरचनाएं नहीं गिराई जातीं, बल्कि नागरिकों के मन और मस्तिष्क को गहरे और स्थायी मानसिक आघात पहुँचते हैं, समाज में दूरियाँ पैदा होती हैं, आपसी सद्भाव छिन्न-भिन्न होता है, संविधान का अपमान होता है और फलस्वरूप लोकतंत्र की नींव कमज़ोर होती है। सरकार को इस प्रथा पर तुरंत रोक लगाना चाहिए, सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए और इन अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों के लिए ज़िम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराकर क़ानून का शासन बहाल करना चाहिए।

बुलडोज़र संस्कृति से उत्पन्न ख़तरों को समय रहते पहचानना और उन्हें रोकना हम सभी की सामूहिक ज़िम्मेदारी है। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और न्याय के मूल्यों की रक्षा के लिए हमें जागरूक होना होगा। मानवाधिकारों के प्रति सम्मान, सजगता, एकजुटता, और मिल-जुल कर अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठा कर ही हम “बुलडोज़र संस्कृति” को रोक सकते हैं और उन लोगों के लिए न्याय और गरिमा को पुनः स्थापित कर सकते हैं जिनके साथ अन्याय हुआ है।