हम सबने “जिस टहनी पर बैठे हैं, उसी को काटने” वाली कहावत तो सुनी ही है। यही स्थिति हमारे देश के अधिकतर युवाओं की है। उन्हें ‘देश’ और ‘सरकार’ के बीच अंतर करना नहीं आता। देश उनके लिए सिर्फ एक ज़मीन का टुकड़ा है जिसपर मुट्ठीभर लोगों का हक है, देश की अधिकतर जनसंख्या के लिए उनके इस ‘देश’ में कोई जगह नहीं है।
यह इस मुल्क का दुर्भाग्य ही है कि ज्यादातर स्कूलों, कालेजों में पढ़ने वाले युवाओं को रोज़गार की परवाह नहीं है, उन्हें सरकार बड़े आराम से राष्ट्रवाद की चरस से, तो कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर अपने वश में कर लेती है। मूलभूत मुद्दों से भटके इन युवाओं को लगता है कि सरकार से सवाल करना, सरकार की खिलाफत करना, गद्दारी है, देश पर हमला है।
हर नागरिक इस देश के प्रति अपनी श्रद्धा और प्रेम की शपथ लेता है ना कि किसी सरकार के प्रति। तार्किक सोच-समझ रखना मनुष्य होने का प्रमाण है लेकिन इन युवाओं से यह भी छीनकर इन्हें भेड़ोें के झुंड में तब्दील कर दिया गया है जहाँ ये अपने मालिक के पीछे पीछे बिना सर उठाए चलते रहेंगे। यह अब सिर्फ विचारधारा के प्रति लगाव का मसला नहीं रह गया है, इस तरह की मानसिकता गुलामी को जन्म देती है।
यह बात समझने की जरूरत है कि गद्दी पर बैठने वाला हर शख्स आखिर मनुष्य है और उसके अंदर वो सारी बुराईयां होती हैं जो आम इंसान में होती है लेकिन उसके पास ताकत आम इंसान से कई गुना ज्यादा है। उसके हाथ में करोड़ो इंसानों के जीवन की डोर होती है। तो क्या इस स्थिति में उसे खुला छोड़ देना चाहिए, इन जिंदगियों के साथ खिलवाड़ करने के लिए, या उसे आवारा होने से रोकने के लिए उसपर लगाम कसकर रखनी चाहिये? जनता के सेवक को सेवक ही रहने दिया जाए तो बेहतर है, अगर देवता बना दिया जाएगा तो वही होगा जो कभी जर्मनी ने देखा था और कुछ मायनों में आज हम अपने देश में देख रहे हैं। ज़मीन के टुकड़े से नहीं, इसमें बसने वाले करोड़ों लोगों से प्यार करने लगेंगे तो उनकी जिंदगी दूभर करने वाला तथाकथित प्रधानसेवक आपको कभी देवता नहीं लगेगा।
– खुशबू शर्मा
(लेखिका जेएनयू दिल्ली में पोलिटिकल साइंस की छात्रा है)