–त्रिभुवनराजस्थान की अलवर लोकसभा क्षेत्र की सियासत ऊपरी तौर पर बहुत आसान दिखती है; लेकिन उसके अतीत के इतने पेचोख़म हैं कि इन्सान हैरान हो जाए।
भूपेंद्र यादव बनाम ललित यादवइस चुनाव में इस सीट पर केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता भूपेंद्र यादव का मुक़ाबला काँग्रेस के युवा चेहरे ललित यादव से है। भाजपा के लिए अब पूरा रास्ता आसान और हमवार है, जबकि काँग्रेस के लिए आसान सा रास्ता अब दुश्वार हो गया है।
भूपेंद्र यादव अच्छे रणनीतिकार हैं और उन्होंने ही 2013 में वसुंधरा राजे की राजनीतिक यात्रा का पूरा संचालन किया था। वे अब तक राज्यसभा के सदस्य थे और केंद्र में मंत्री हैं।
डॉ. करणसिंह यादव थे टिकट के दावेदारइस सीट से काँग्रेस की टिकट के दावेदार पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद डॉ. करणसिंह यादव थे।
वे मैदान में होते तो न केवल भाजपा के लिए मुश्किलें होतीं, काँग्रेस की स्थिति यहाँ जीत वाली भी संभव थी। जनता में उनकी लोकप्रियता तो है ही, वे एक विश्वसनीय नेता माने जाते हैं।
मत्स्य प्रदेश में मत्स्य न्याययादव को लोकसभा का टिकट मिलना तय था; क्योंकि पायलट भी उनके समर्थन में थे।
डॉ. यादव जिस समय एसएमएस हॉस्पीटल जयपुर में अधीक्षक थे, तभी से उनके रिश्ते काँग्रेस के दिग्गज नेता राजेश पायलट से काफी अच्छे थे।
जिस समय काँग्रेस की केंद्रीय समिति टिकट तय कर रही थी तो जितेंद्रसिंह की सिफ़ारिश पर नेता प्रतिपक्ष बनाए गए टीकाराम जूली ने अनुशासन का मुद्दा उठाकर करणसिंह को टिकट दिए जाने का विरोध किया।
कहते हैँ कि शतरंज के खेल में कई बार मोहरे ख़ुद चल पड़ते हैं और प्यादे इस खेल में ज़्यादा माहिर होते हैं। वे हाथ के स्पर्श से पहले ही खिलाड़ी की भावनाओं को समझ लेते हैं और उंगलियां उस तक पहुंचें, उससे पहले ही वे अपना काम शुरू कर देते हैं।
बताते हैं, इस पर सोनिया गांधी ने ‘वाइ नॉट जितेंद्रसिंह’ कहा तो वे पीछे हो गए और इसी से चली राजनीति में पायलट के करीबी और मुंडावर विधायक ललित यादव का नाम एक रणनीति के तहत किया गया, ताकि सचिन विरोध नहीं कर सकें।
डॉ. करणसिंह अलवर कॉँग्रेस की राजनीति में संभवत: पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने भंवर जितेंद्रसिंह के सिटी पैलेस पर जाकर धरना दिया और कहा कि काँग्रेस राजाओं से लड़ती थी और अब राजा काँग्रेस का भविष्य तय कर रहे हैं।
और इसके बाद मत्स्य प्रदेश में मत्स्य न्याय शुरू हो गया।
अब राजनीतिक भंवर में काँग्रेसपार्टी नेता बताते हैं कि बाकी बड़े नेताओं की तरह भँवर जितेंद्रसिंह भी चुनाव लड़ना नहीं चाहते थे। उन्हें पिछली बुरी हार की पीड़ा भी साल रही थी।
सूत्रों के अनुसार इस बार ज़मीन पर काँग्रेस का समर्थन अच्छा है, लेकिन उसे लीड करने वाला कोई बड़ा नेता नहीं है। बड़े नेताओं की ग़लतियों और घमंड का आलम ये है कि यहाँ डॉ. करणसिंह जैसा कद्दावर नेता अब भाजपा में चला गया है।
काँग्रेस में जहाँ उनकी पूछ नहीं हो रही थी, वहीं भाजपा के मंच पर जब वे जाते हैं तो भूपेंद्र यादव खड़े होकर उनका सम्मान करते हैं। करणसिंह वह सांसद थे, जिनकी सोनिया गांधी ने लोकसभा में जमकर तारीफ़ें की थीं।
इसके बाद जब टिकट का समय आया तो राजस्थान हाउस में प्रदेश के एक बड़े नेता ने उन्हें बहुत अपमानित किया था।
न सियासी गणित की चिंता, न धरातल की, सिर्फ़ ख़ुद का कब्ज़ा ज़रूरीआप एक तथ्य देखें, साल 2018 में महंत चाँदनाथ की मृत्यु के बाद भाजपा सरकार के समय हुए लोकसभा उपचुनाव में भाजपा के डॉ. जसवंत यादव को 4,45,920 वोट मिले, जबकि करणसिंह यादव को 6,42,416 वोट। और अब जब दोनों ही साथ हैं तो कल्पना करें कि इलाके के वोटों का गणित क्या होगा?
साफ़ है, जिस भाजपा के लिए अप्रैल में सियासी लू चल रही थी, उसके लिए काँग्रेस की अंदरूनी लड़ाई ने वसंत की अवधि बढ़ा दी।युद्ध हो रहा है और इलाके के दो बड़े योद्धा नदारद हैंललित यादव के समर्थन में प्रियंका गांधी का रोड शो भी बहुत फीका रहा और वे उसे बीच में ही छोड़कर चली गई थीं।
मेवों, मालियों और अनुसूचित जाति के साथ-साथ अन्य वर्ग के मतदाताओं के भीतर भाजपा के प्रति काफी नाराज़गियां भी हैं। लेकिन ज़मीनी स्तर पर बताया जा रहा है कि इस सबको भुनाने वाले रणनीतिकार ही नहीं हैं। इलाक़े के दो प्रमुख सेनापति तो शुरू से ही मुंह दिखाई के लिए आ रहे हैं।
काँग्रेस यहाँ वाक़ई मज़बूत थी। इसका सशक्त संकेत विधानसभा चुनावों के गणित से मिलता है। इस संसदीय क्षेत्र की आठ विधानसभा सीटों में से तीन (अलवर शहर, बहरोड़ और तिजारा) को छोड़कर बाकी पांच सीटें (किशनगढ़ बास, मुंडावर, अलवर ग्रामीण, रामगढ़ और राजगढ़-लक्ष्मणगढ़) काँग्रेस के पास हैं।
अब अगर यहाँ का परिणाम काँग्रेस के लिए नकारात्मक आता है तो इसका कुसूर गहरे आत्मविश्लेषण की माँग करता है।
काँग्रेस ने ऐसे कमज़ोर किया अपना सियासी शीराज़ाअगर साल 2019 के लोकसभा चुनाव को देखें तो नतीजे हैरान करते हैं। साल भर पहले करणसिंह यादव को 6,42,416 वोट मिलते हैं और इस चुनाव में भंवर जितेंद्रसिंह को मिलते हैं 4,30,230 वोट। सीधे दो लाख से भी कम। अब यह वोट पूरा का पूरा वोट नहीं तो इसे हासिल करने वाला ताक़तवर नेता अपने फौजफाटे के साथ भाजपा में भेज दिया गया है।
यह संसदीय सीट बोल रही अपनी कहानी ख़ुदअगर थोड़ा फ़लैशबैक से चीज़ों को समझने की कोशिश करें तो 2014 के चुनाव में भाजपा के महंत चाँदनाथ ने काँग्रेस के भंवर जितेंद्रसिंह को हराया था।
2009 में डॉ. करणसिंह को लोकसभा सांसद का टिकट मिलना तय था; लेकिन नहीं दिया गया और भंवर जितेंद्रसिंह ने यह चुनाव लड़ा और केंद्र में मंत्री बने।
2004 में डॉ. करणसिंह यादव ने महंत चाँदनाथ को भाजपा शासन में इसी सीट पर बुरी तरह हराया था।
जनसंघ-भाजपा से जुड़ा परिवार ऐसे आया काँग्रेस के क़रीब1999 के चुनाव में भंवर जितेंद्रसिंह की माँ युवरानी महेंद्रकुमारी को काँग्रेस से टिकट मिला। लेकिन वे भाजपा के डॉ. जसवंत यादव से हार गईं। उस समय उन्हें माधवराव सिंधिया ने अलवर आकर काँग्रेस ज्वाइन करवाई थी।
बाघों के पालती थीं युवरानी महेंद्र कुमारीयुवरानी महेंद्रकुमारी एक अद्भुत शख़्सियत वाली असाधारण महिला थीं। वे बूंदी राजघराने की बेटी थीं। राजस्थान के राजघरानों में बहादुर महिलाओं के नाम लिए जाएं तो संभवत: उनका नाम सबसे ऊपर रहेगा।
वे बाघों को अपने हाथों से खाना खिलाती थीं और आजकल जिस तरह राजघरानों में महिलाएं शौक से शानदार कुत्तों को पालती हैं, वे बड़ी संख्या में अपने आंगन में बाघों को रखती थीं। उन्हें गोद बिठाकर दूध पिलाना और अपने हाथों से खाना खिलाना उनका शौक था।
जाहिर है ऐसे सहृदय और संवेदनशील लोगों को चालाक और हृदयहीन राजनेता कभी पसंद नहीं करेंगे।
कुछ पुराने विवाद भीयह राजपरिवार शुरू से ही भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा हुआ था।
इतिहास के तथ्य यह भी बताते हैं कि अलवर रियासत के राजा ने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का भारी विरोध किया था।
विभाजन के समय इस रियासत के प्रधानमंत्री डॉ. एनबी खरे पर ये आरोप भी थे कि उन्होंने रियासत में दंगे होने दिए और मुसलमानों को मारे जाने दिया।
बाद में जब महात्मा गांधी की हत्या हुई तो नाथूराम गोड्से को दिया गया पिस्तौल भी अलवर राजपरिवार और उसके प्रधानमंत्री को विवादों में लाता रहा है।
लेकिन ये इतिहास की बातें हैं और इतिहास की घटनाओं की व्याख्या लोग अपनी तरह करते हैं।
घासीराम यादव का वह किस्सामहारानी महेंद्रकुमारी 1998 के चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ी हुईं और काँग्रेस के घासीराम यादव से हारीं।
घासीराम बहुत विद्वान और सुशिक्षित व्यक्ति थे और वे हिन्दी, संस्कृत और अंगरेजी धाराप्रवाह बोला करते थे।
कहते हैं कि घासीराम पहले विधायक थे और वे राज्य विधानसभा में उपाध्यक्ष भी रहे।
उन्हें जब भी लोकसभा का चुनाव लड़ने को कहा जाता तो वे कहते, लोकसभा बूढ़ों के लिए है, जवानों के लिए नहीं। जब बूढ़ा हो जाऊंगा तो लोकसभा लडूंगा और उसी में मरूंगा। लोग इसे मज़ाक समझकर हंसते रहे; लेकिन हुआ भी ऐसा ही।उस चुनाव में भाजपा के जसवंत यादव तीसरे नंबर पर रहे थे। 1996 में काँग्रेस के बड़े नेता नवलकिशोर शर्मा ने भाजपा के जसवंत यादव को हराया।
भैरोसिंह शेखावत ने अलवर में ऐसे जमाया था भाजपा का सियासी शीराज़ाभाजपा और उससे पहले भारतीय जनसंघ 1951 से लगातार अलवर संसदीय क्षेत्र में अपने पाँव जमाने की कोशिशें कर रहे थे। नौ चुनावों में लगातार बुरी हार के कारण भाजपा के प्रमुख नेताओं में जीत की कसक थी।
प्रदेश के ताक़तवर और राजनीतिक रूप से बेहद कुशल नेता भैरोसिंह शेखावत ने काँग्रेस को हराने के लिए 1991 में एक बड़ा दांव खेला।
उन्होंने महारानी महेंद्र कुमारी को चुनाव में उतारा और कुछ संवेदनशील मुद्दों के आधार पर यह चुनाव जीत लिया। लेकिन बाद में उन्हें टिकट ही नहीं दिया। अंतत: यह राजपरिवार भाजपा से काँग्रेस के खेमे में 1999 में आ गया।
1989 में जनता दल के रामजीलाल यादव ने काँग्रेस के रामसिंह यादव को हराया।1984 में काँग्रेस के रामसिंह यादव ने संपतराम निर्दलीय को हराया। इस चुनाव में भाजपा की जमानत जब्त हो गई थी।
1980 में रामसिंह यादव ने जनता पार्टी के रामजीलाल यादव को हराया। 1977 में रामजीलाल यादव ने बीएलडी की टिकट पर काँग्रेस के डॉ. हरीप्रसाद को भारी मतों से हराया।
उम्मीदवार को जब तलाश करके लाए और भारी मतों से जीताबताते हैं कि जनता पार्टी के नेताओं को इस सीट पर खड़े होने के लिए कोई नेता नहीं मिल रहा था और कुछ लोग बहरोड़ जाकर आराम फरमा रहे रामजीलाल यादव को उम्मीदवान बनने के लिए बमुश्किल तैयार करके लाए।
इंडिया के ऑयल किंग, ऑक्सफॉर्ड से पीएचडी और चुनाव जीता अलवर सेसाल 1971 का चुनाव था और काँग्रस के उम्मीदवार थे डॉ. हरीप्रसाद। उन्हें लोग ऑयल किंग ऑव इंडिया कहते थे। वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी थे। उनके सामने विशाल हरियाणा पार्टी की सुमित्रा देवी ने चुनाव लड़ा। वे राव वीरेंद्रसिंह की बहन थीं तो सभी उन्हें बाई जी कहते थे।
बाई जी ने बदल दी अलवर की पूरी सियासत और बन गई यह सीट यादवों कीबाईजी चुनाव तो हार गईं, लेकिन इलाके के यादवों को यह संदेश दे गईं कि यह सीट यादवों की है। आप इस पर क्यों चुनाव नहीं लड़ते। मैं बाहर से आकर यादवों के इतने वोट ले सकती हूँ तो आपके लिए क्या असंभव है? और उसके बाद से यह सीट यादवों की ही हो गई।
1967 में यहाँ काँग्रेस के बी नाथ ने एसएसपी के के. राम को हराया। 1962 में निर्दलीय काशीराम ने काँग्रेस के शोभाराम को हराया। शोभाराम मत्स्य प्रदेश के प्रधानमंत्री रहे थे।
1951 में भी शोभाराम ने ही पहला चुनाव लड़ा और वे जीते। उन्होंने केएलपी के टिकट पर लड़े पीडी सिंघानिया को चुनाव हराया। लेकिन 1957 का चुनाव बहुत दिलचस्प रहा।
क्या ऐसा आज संभव है? …आरोप लगा तो महाराजा को रात के तीन बजे दस बीघा जमीन वापस लिखवाईवह वाकई नैतिक और ईमानदार लोगों का जमाना था।
साल 1957 में काँग्रेस के टिकट तय होने लगे तो शोभाराम जैसे दिग्गज नेता को टिकट कौन रोकता? लेकिन केंद्रीय चुनाव समिति के नेता मोरारजी देसाई ने सवाल उठाया कि शोभाराम पर महाराजा से दस बीघा जमीन उपहार में लेने का आरोप है और अगर यह सही है तो यह नैतिक रूप से सही नहीं है। टिकट नहीं मिल सकता।
बताते हैं, उसी समय शोभाराम ने अपने शिष्य जयकिशन शर्मा को अलवर भेजा। रात के तीन बज गए थे। वे तहसीलदार के घर गए। तहसील के ताले खुलवाए। शोभाराम का पत्र दिया और दस बीघा जमीन महाराजा के नाम वापस कर तहसीलदार से इस आशय का पत्र जारी करवाया कि शोभाराम के नाम इस तहसील में कहीं भी दस बीघा क्या कुछ भी जमीन नहीं है।
जयकिशन शर्मा ने वह प्रमाण पत्र दिल्ली ले जाकर दिया और काँग्रेस की चुनाव समिति ने उनकी उम्मीदवारी घोषित की।
दो दोस्तों के बीच हुआ 1957 का चुनाव1957 के चुनाव में शोभाराम ने अपने करीबी दोस्त सीपीआई नेता कृपादयाल माथुर को हराया।
और अंत में -अलवर का महोरी गांव उस हेमू का जन्मस्थान माना जाता है, जिसने अकबर को हराकर मुगलकाल में 7 अक्टॅूबर, 1556 से 5 नवंबर, 1556 तक हिन्दू राज स्थापित किया था।
-ये वही अलवर है, जहाँ के महाराजा जयसिंह ने रॉल्स रॉयस कंपनी की सबसे प्रतिष्ठित छह कारें कूड़ा ढोने के लिए लगा दी थीं और इससे कंपनी ने उनके सामने समर्पण कर दिया और इतनी ही कारें मुफ़्त देने को तैयार हो गए।
-ये वही अलवर है और वही महाराजा जयसिंह हैं, जिन्होंने दुनिया भर में नाम कमा चुके एक ज्योतिषी अलास्टर को आज से करीब सौ साल पहले हजार रुपए रोज़ पर अलवर बुलवाया और कहा कि आपको असाधारण सम्मान मिलेगा। लेकिन ज्योतिषी को न तो सम्मान मिला और न ही किसी ने पूछा। वह कई महीनों तक धक्के खाता रहा तो एक दिन महाराजा ने बुलवाकर कहा, तुम्हें अपना ही भविष्य पता नहीं लगा तो तुम मेरा भविष्य क्या बताओगे!
(त्रिभुवन वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है, यह लेख उनके X अकाउंट से साभार लिया गया है)