राहत इंदौरी |
मंच सजा हुआ है। हर निगाह आतुर है। इस सजे हुए मंच की रौनक अभी आना बाकि है। वो शख्स जो कहता है कि
“हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते”
आज थोड़ा देर से आ रहा है। ठीक इसी वक्त एक खदशा भी है कि कहीं ऐसा ना हो कि वो ना आए। ये उसकी ज़िंदगी में सजे मंचों में से आखिर का कोई मंच रहा होगा। उसके ना पहुंच पाने का डर नासाज़ तबियत थी जिसके रहते कई शो आखरी वक़्त में रद्द किए..लेकिन आज वो आ पहुंचा था।
मंच गूंज उठा.सब जानते थे कि हमारे दौर का एक अज़ीम शायर जिसे हमने जिया है आज हमारे सामने है..हल्की सी झुकी कांठी,गुलाबी रंग की शर्ट और भरा हुआ हट्टा-कट्टा सा शरीर,चेहरे पर बड़प्पन का भाव,अपना हाथ हवा में धीरे से हिलाते हुए मुस्कुराता वो शख्स,जिसे हर कोई देखना चाहता था। लग रहा है कि आज अपना ये शेर दोहरा रहा है-
“मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं दुनिया को समझ रही थी कि ऐसे ही छोड़ दूंगा उसे”
राहत इंदौरी का जन्म जनवरी 1950 में इंदौर शहर के रफ्तुल्लाह कुरैशी और मकबूल उन निशा बेगम के यहाँ हुआ था। इस्लामिया करीमिया कॉलेज इंदौर से 1973 में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और 1975 में बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से उर्दू साहित्य में एमए किया। इसके बाद 1985 में मध्य प्रदेश के मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
राहत इंदौरी एक बेबाक शायर थे जिसने कभी अपने कहने से समझौता नही किया.हर वो बात कही जो वक़्त की दरकार थी.एक व्यक्ति आवाम का शायर कब बनता है इस सवाल का जवाब राहत इंदौरी की शायरी थी.राहत इंदौरी ने जनता के सवालों को अपनी शायरी में पिरोकर सरकार पर कई मर्तबा धावे बोले..उनका एक शेर इस बात की खूबूसरत मिसाल है जिसे वो दोहराते तो सामने बैठी आवाम खड़ी हो जाती..उन्होंने कहा था कि
“ऊँचे ऊँचे दरबारों से क्या लेना नंगे भूखे बेचारों से क्या लेना अपना मालिक अपना ख़ालिक अफ़ज़ल है आती जाती सरकारों से क्या लेना”
शेर पढ़ने का अंदाज़ ऐसा होता कि जैसे सरकार के किसी नुमाइंदे से खुद रूबरू हैं,चहरे पर तल्खी तारी हो जाती और अगले ही पल मुस्कुरा देते।
मशहूर शायर गुलज़ार लिखते हैं,
“वो तो मुशायरों का लुटेरा था। जो दुनिया से विदा ले, उर्दू मुशायरों को खाली छोड़ गया। उसकी जगह को कोई नहीं भर सकता। राहत अपनी तरह का इकलौता शायर था। मंच पर खड़ा होता तो पूरी महफिल लूट लेता। हर उम्र और वक्त के सुनने वालों का चहेता था राहत। लोग उसका इंतजार करते थे, यूं तो मुशायरों में मोहब्बत की बातें ज्यादा होती हैं लेकिन राहत ने हर मुकाम पर कलाम पढ़ा और लोगों ने उसे दिल में जगह दी”
वक़्त बीत जाने के बाद जब आज हम आवाम के शायरों में हबीब जालिब का कलाम पढ़ते हैं तो सोचते हैं कि हम उस दौर में क्यों नही थे जब हबीब जालिब लिख रहे थे लेकिन अगले ही पल हम इस ख्याल से खुश हो जाते हैं कि हमने राहत इंदौरी का दौर तो जिया है।
हर दौर में बहुत से शायर हुए हैं लेकिन राहत इंदौरी को जो बातें सबसे खास बनाती हैं वो उनके व्यक्तित्व से जुड़ी हुई हैं,राहत इंदौरी एक ज़िंदा दिल इंसान थे.जिस दौर में शायरी का मतलब मुहब्बत और इश्क़ के पन्नों में समेट दिया गया है उस वक़्त में राहत इंदौरी ने मज़लूमों की आवाज़ को अपने ज़हन के शब्दों में पिरोने का काम किया था.उन्होंने हर वो बात कही जो एक ज़िम्मेदार शख्स को कहनी चाहिए थीं।
राहत इंदौरी अपनी शायरी में कई मर्तबा मुसलमानों की इस मुल्क में हिस्सेदारी की बात को अपने इस अहसास के ज़रिए ज़ाहिर करते थे जिसे हम सब आज के समाज में देख रहे हैं..जब राहत ये कलाम पढ़ते थे कि
“सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है”
तब उनके चेहरे का भाव एकदम सुर्ख पढ़ जाता था.लगता था की मुसलमानों से देशभक्ति का सर्टिफिकेट मांग रहे लोगों को चेता रहे हों..राहत इंदौरी अपनी शायरी के ज़रिए हर बार एक पैगाम देने की कोशिश करते थे,जब वो शायरी पढ़ रहे होते तो आवाम बहुत गौर से सुनती थी.उनकी ये कला थी कि वो कभी अपने और आवाम के दरमियान फासला नही होने देते थे।
राहत इंदौरी 11 अगस्त,2020 को अचानक हम सबके दरमियान से रुखसत हो गए.. जब उनके चले जाने की खबर कानों में पड़ी तो दिल बैठ गया और एकदम से लगा कि इस क्षति की क्या ही भरपाई हो पाएगी..”ऐसे शख्स सदियों में कहीं मुश्किल से खोजे जाते हैं जो आज अचानक बिना कुछ कहे चुपके से चला गया।
आज राहत साहब हमारे बीच में नही हैं लेकिन जो उन्होंने हमें दिया है वो एक अमर हौसला है जो हर बार हमें सवाल करने के लिए उकसाता रहेगा।
पुरी दुनिया आज उनके चले जाने का गम मना रही है। हर मंच सूना है पड़ा है। एक चमक चली गयी है। माहौल फीका सा पड़ गया है। राहत साहब को हमेशा याद रखा जाएगा,एक इन्क़िलाबी शायर की तरह।