”जनरल, ये विश्वविद्यालयों के लोग हैं।” ”तो विश्वविद्यालय बंद कर दो। हमें नहीं चाहिये।” ”तब दुनिया को ज्ञान-विज्ञान के नाम पर क्या दिखाएंगे ?”

युवा क़लम

कौन हैं ये लोग जो तर्क करते हैं? जनरल, ”ये विश्वविद्यालयों के लोग हैं।”

By अवधेश पारीक

November 20, 2019

”हमारी बात की खिलाफ़त करने वालों का मुँह बंद कर दो।”

”जनरल, सारी ताक़त इसी पर लगा रखी है। जल्द ही हो जाएगा।”

”तुम समझ गए होगे कि मुझे कैसा मुल्क चाहिए।”

”जनरल, आपको ऐसा मुल्क चाहिए जिसमें सिर्फ सहमति के हाथों की फसल लहराये।”

”सिर्फ इतना ही समझे?”

”नहीं जनरल, यह भी समझ गया कि सवाल करने वालों को देश निकाला दे दिया जाये।”

”मुझे लगता है कि तुम अब समझदार हो रहे हो।”

”जनरल, कुछ समस्याएं आ रही हैं ?”

”बोलो क्या हुआ ? खुलकर बोलो।”

”कुछ लोग तर्क करते हैं ?”

”तर्क करते हैं…… यह सब बर्दाश्त नहीं होगा।”

”हम इन लोगों को ठीक कर रहे हैं जनरल। मतलब जेलों में भर रहें हैं।”

”जल्दी करो। ज़रूरत हो तो और जेलें बनवाओ।”

”जनरल, जेलें बनने में वक़्त लगेगा।”

”तब तक ऐसा करो कि मुल्क को ही जेल में तब्दील कर दो।”

”लेकिन ये तर्क करने वाले जेलों में भी तर्क करते हैं ?”

”कौन लोग हैं ये ?”

”जनरल, ये विश्वविद्यालयों के लोग हैं।”

”तो विश्वविद्यालय बंद कर दो। हमें नहीं चाहिये।”

”तब दुनिया को ज्ञान-विज्ञान के नाम पर क्या दिखाएंगे ?”

”तंत्र, मंत्र और जंत्र। इनमें सब आ गया।”

”जनरल, इन्हीं सब पर ये लोग तर्क करते हैं।”

”तुम इनमें देशभक्ति भरो।”

”यही कोशिश कर रहे हैं जनरल। लेकिन ये कहते हैं कि सवाल उठाना भी देशभक्ति है।”

”तो फिर इन्हें देशद्रोही बना दो।”

”वो कैसे ?”

”जो हमारी बात का विरोध करते हैं वे सब देशद्रोही हैं। उन्हें यहां रहने का कोई अधिकार नहीं है।”

”देशद्रोही मुर्दाबाद।”

”मुर्दाबाद। मुर्दाबाद।”

”जनरल का शासन जिंदाबाद।”

”जिंदाबाद। जिंदाबाद।”

”अब तो मुल्क में कोई ख़तरा नहीं है ना! सब ठीक चल रहा है!”

”विश्वविद्यालयों के लोग मनुस्मृति की बहुत आलोचना कर रहे हैं।”

”इसे सारे पाठ्यक्रमों में अनिवार्य कर दो। जो इसका विरोध करता है उसे

तरक्की का दुश्मन बताओ।”

”लोगों ने इसे अन्याय की किताब साबित कर दी है।”

”सारे विश्वविद्यालयों में अपने लोग भर दो।”

”जनरल, इतने पढ़े-लिखे लोग अपने पास कहां हैं ?”

”मूर्ख, मेरे आदेश के सामने डिग्रियों की क्या हैसियत। फिर भी तुझे लगता है तो मिश्रा जी के कम्प्यूटर सेंटर से मर्ज़ी के मुताबिक निकलवा देना।”

”पढ़ाई लिखाई मुर्दाबाद।”

”मुर्दाबाद। मुर्दाबाद।”

”जनरल का आदेष जिंदाबाद।”

”जिंदाबाद। जिंदाबाद।”

”मेरी राह में कोई रोड़ा दिख रहा है तुम्हें।”

”साब, विश्वविद्यालयों का विरोध रुक नहीं रहा है।”

”वहां पर अपने लोग नहीं बैठाये क्या?”

”बैठाये तो हैं हुजूर, लेकिन सब अय्याशियां कर रहे हैं। लोगों ने इन्हें बेवकूफ भी साबित कर दिया है।”

”इन्हें कुछ ऐसा दिखाओ कि ये हमारे भक्त हो जायें।”

”आपका पचेरी वाला फार्म हाउस दिखा दें ?”

”नालायक! उसके बारे में तो किसी को बताना भी मत। इन्हें टैंक दिखाओ।”

”उससे तो डर पैदा होगा।”

”बिल्कुल। डर को देशभक्ति में तब्दील कर दो।”

”जनरल, टैंक दिखाने के लिये इन्हें सीमा पर ले जाना पड़ेगा ना!”

”तुम्हारी यही बकवासें तो मेरी विश्व-विजय को कमजोर करती हैं। सारे विश्वविद्यालयों में टैंक लगवा दो।”

”जैसा आदेश मालिक।”

” विश्वविद्यालय मुर्दाबाद।”

”मुर्दाबाद। मुर्दाबाद।”

”जनरल के टैंक जिंदाबाद।”

”जिंदाबाद। जिंदाबाद।”

”टैंक से लोग डरें होंगे ना!”

”नहीं साब। विश्वविद्यालय के लोगों ने टैंक पर फूलों के पौधे लगा दिये हैं।”

”क्या कह रहे हो तुम।”

”मालिक ठीक कह रहा हूं। टैंक से गोला दागने की जगह गुलाब खिले हैं।

पहियों पर चमेली लहरा रही है। बच्चे छुपम-छुप्पी खेलते हैं वहां।”

”तुम्हारे पास कोई उपाय है इनसे निपटने का ?”

”जनरल, विश्वविद्यालयों को बेच दीजिये।”

”किसको बेचें ?।”

”साब, सारे पैसे वालों से तो आपका याराना है। किसी को भी बेच दो।”

”ऐसा करो कि विश्वविद्यालयों को पैसा देना बंद कर दो।”

”बिल्कुल जनरल। यह कह देंगे कि आपको आज़ादी दे दी है।”

”आज तुमने बड़ी समझदारी की बात कही है। बिना पैसे कब तक चल पायेंगे।

फिर आराम से बेच देंगे किसी रोज़।”

”विश्वविद्यालय मुर्दाबाद!”

”मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!”

”जनरल का शासन जिंदाबाद!”

”जिंदाबाद! जिंदाबाद!”

”अब बताओ कौन-सा विश्वविद्यालय किस दोस्त को बेचना है ?”

”लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है।”

”क्यों ? मैं चाहूं और वैसा नहीं हो। ऐसी बात तुम सोच कैसे सकते हो!”

”जनरल गलती हो गई। माफी चाहता हूं। लेकिन जनता विश्वविद्यालय बेचने नहीं

दे रही है। विरोध कर रही है।”

”अबे! यह बात-बात में जनता कहां से आ जाती है।”

”जनरल जनता तो देष में रहती है। उसकी बात माननी होगी।”

”अगर उसकी बात नहीं मानूं तो क्या उखाड़ लेगी जनता!”

”हुजूर जनता तख़्ता पलट देगी।”

”जनता को बेवकूफ बनाने के रास्ते आते हैं मुझे।”

”फिर तो कोई दिक्कत ही नहीं है। कैसे करेंगे ?”

”पहले इन सरकारी विश्वविद्यालयों को चौपट करो। अपने दोस्तों से

प्राइवेट विश्वविद्यालय खुलवाओ। ऐसा माहौल बनाओ कि जनता खुद सरकारी

विश्वविद्यालयों को गाली देने लगे।”

”वाह! जनरल। आपने तो सब कुछ चुटकी में हल कर दिया।”

”प्राइवेट विश्वविद्यालय जिंदाबाद।”

”जिंदाबाद! जिंदाबाद।”

”सरकारी विश्वविद्यालय मुर्दाबाद।”

”मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!”

”अब तो मेरी छाती से ये सरकारी विश्वविद्यालय हट रहे हैं ना!”

”जनरल नहीं हट रहे।”

”क्यों! अब क्या हो गया?”

”जनरल ये सरकारी विश्वविद्यालय दुनियाभर में बेहतर शिक्षा के लिए मशहूर हो रहे हैं।”

”इन पर बुल्डोजर चलवाकर जमीन समतल कर दो।”

”यह हो नहीं सकता जनरल।”

”क्यों नहीं हो सकता! मैं आदेश देता हूं।”

”जनरल, जनता कह रही है कि आपके आदेश ने वैद्यता खो दी।”

– संदीप मील, कहानीकार