14 मार्च 1931 की वह वही ऐतिहासिक तारीख है जो भारतीय सिनेमा में बदलाव का दिन लाई थी ।क्योंकि इसी दिन भारतीय सिनेमा ने बोलना सीखा था । इस फ़िल्म के निर्देशक थे अर्देशिर एम. ईरानी । अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फ़िल्म ”शो बोट” देखी तभी से उनके मन मे इस तरह का सिनेमा रचने की इच्छा जगी और एक पारसी रंगमंच के लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर आलमआरा की पटकथा तैयार की । आलमआरा जिसका मतलब है ” दुनियाँ की रोशनी” एक साक्षात्कार में निर्देशक ईरानी ने कहा था कि हमारे पास संवाद लेखक , संगीतकार और गायक कुछ भी नही था । उनकी लगन का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने तीन वाद्य यंत्र तबला, हारमोनियम व वायलिन से संगीत रच दिया था और पहले गायक बने थे डबलू एम खान गाना था -”दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, अगर देने की ताकत है ।” फ़िल्म की नायिका जुबैदा थी नायक थे विट्ठल । विट्ठल उस दौर के सर्वाधिक पारिश्रमिक पाने वाले नायक थे। । उनके चयन को लेकर तब विवाद की स्थिति पैदा हुई जब उनको उर्दू नही आने के कारण निर्देशक ईरानी ने उनकी जगह महबूब को बतौर नायक ले लिया । विट्ठल नाराज हो गए और मुकदमा ठोक दिया । उस समय उनका मुकदमा प्रसिद्ब वकील मोहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा । विट्ठल मुकदमा जीते और इस ऐतिहासिक फ़िल्म का हिस्सा बने ।
आलम आरा का प्रथम प्रदर्शन मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में 14 मार्च 1931 को हुआ था। फ़िल्म इतनी लोकप्रिय हुई कि पुलिस को भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए जाब्ता बुलाना पड़ा था । दर्शकों के लिए आलमआरा एक अनोखा अनुभव थी तकरीबन दस हजार फुट लंबी फ़िल्म थी जिसे चार महीने के कठिन परीक्षम के साथ बनाया गया था ।O