शहर जो आदमी खाता है-1

By khan iqbal

June 01, 2018

एक बड़ी दानवाकार कृति मेरे ऊपर आ बैठी है और एक विराट स्वरूप धारण करती जा रही है । अचानक मैं उठ बैठा पसीने से तरबतर । आज मुझे पूरे छ: साल हो गए थे दिल्ली शहर में रहते हुए । राजस्थान के अति दुर्गम स्थान जैसलमेर के एक ग्रामीण परिवेश में कितनी मुश्किलों के बाद मैं बारहवीं तक की तालीम हासिल कर  पाया था । कारगिल युद्ध उस समय चल रहा था और भारत-पाकिस्तान दोनों देशों की सेनाओं के हौसले बुलुंद थे । दो-चार गोले उधर से आ गिरते तो जवाब में आठ-दस गोले भारतीय सेना भी बरसा रही थी । आसमान पूरा लाल हुए जा रहा था । जेठ की तपती गर्मी कुछ कम हो चली थी परन्तु मैं वहाँ से दिल्ली भाग आया । भागकर तो नहीं आना चाहता था पर मेरे पास कोई चारा भी न था । जिस मोहल्ले में हम रहते थे वहाँ गिनती के चार-छ: घर ही थे ।  उनमें भी आधे मुसलमानों के, उनमें से एक को मैं अक्सर चचा कहकर बुलाता था । वैसे तो उनका नाम इकरम खान था पर मेरे लिए वे गुब्बारे वाले चचा ही थे । इकरम चचा अक्सर शहर जाया करते थे ट्रक लेकर । आते हुए वे मेरे लिए गुब्बारे लाते और रंग-बिरंगे उन गुब्बारों में हवा भरकर मुझे देते । मुझे उनसे विशेष लगाव सिर्फ गुब्बारों के लिए था यह कहना तो ठीक नहीं होगा, इसके पीछे एक कारण और था वह उनकी ईद । इकरम चचा रंग,भेद,धर्म जाति किसी में भी कोई भेदभाव नहीं रखते । समभाव के साथ उनकी मुस्कान मुझे हमेशा आकर्षित करती थी । आज मैं फिर उन्हीं दिनों में लौट आया था । मुझे आज भी याद है जब मेरा जन्म हुआ । तो सबसे पहले इकरम चचा ने ही मुझे गोद में लिया था । यह सब मैंने अपनी माँ से जाना ।

 

का इंतजाम करो ।

मैं भीतर जाकर चाय बनाते समय सोचने लगा आज तक तो वे ऐसे न थे । पिछले 3 महीने से मैंने उन्हें घर में कम से कम इस तरह का व्यवहार करते नहीं देखा था । फिर सोचते-सोचते चाय बनाने में व्यस्त हो गया ।

और थोड़ी देर बाद लॉन में जाकर बोला ।

साहब जी- चाय

इंस्पेक्टर- हाँ रख दे  ।

मेरी हिम्मत न थी उनसे कुछ पूछने की । वे मुझे आज फिर पहले दिन वाले और थाने में बैठे इंस्पेक्टर साहब ही मालूम  हुए । उनके इस व्यवहार से मुझे इतना दुःख पहुंचा कि मैं उनका घर रातों-रात छोड़कर भाग आया ।