उम्मीद ज़िंदा है !
लड़खड़ाती,डगमगाती बार बार अपनी जगह से फिसल रही मेरी ये कलम लिखना चाहती है कि “उम्मीद ज़िंदा है” क्या ये दिलासा है ? या एक मज़बूत भरोसा ? क्या उम्मीद सच में जिंदा है ? या मैं ये उम्मीद ही छोड़ दूं ? गुमसुम गली के इस मोड़ से दिखाई दे रहा वो “खण्डर मकान” इस गुज़रगाह पे मंडलाता हुआ ये “भयानक साया” किसी बच्चे के सिसकने,सहमने एक चीख को दबाने की वो आवाज़ कभी यहां लोगों कि आवाजाही थी एक बाज़ार जैसा शोर था बच्चे हंसते खिलखिलाते दौड़े जाते थे औरतों की बतियाती टोली थी शाम ढलने पर काम से लौटते मर्दों का इंतज़ार था
लेकिन !!
ये क्या हुआ कि सब उजड़ गया क्या तुम्हें अब भी लगता है कि कहीं कोई उम्मीद बाकि है ? कहीं कोई बाज़ार बाकि है ? कहीं कोई दौड़ते खेलते बच्चे बाकि हैं ? कहीं बतियाती औरतों का कोई हुजूम है ? या क्या अब भी कोई घर को लौट रहा है ? सुनों मायूस हो जाने से क्या मिलता है ? ज़रा कुछ बाकि है तो उठो तुम ही उम्मीद हो ओर हाँ तुम ज़िंदा हो !!
(अपने संस्थान की ओर से छपने वाली मैगज़ीन के लिए लिखी गई युवा साहित्यकार अहमद क़ासिम की रचना )