साहित्य

उजाले अपनी यादों के हमेशा साथ रहने दो, ना जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए!!

By khan iqbal

September 18, 2018

-माजिद मजाज़

“मैं तेरे साथ सितारों से गुज़र सकता हूँ कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है..”

इंसानी ज़िंदगी के इस सफ़र में कहीं मोहब्बत देखने को मिलती है तो कहीं नफ़रत, कहीं ख़ुशी तो कहीं ग़म, कहीं ख़्वाब तो कहीं शराब, कहीं हिज़्र तो कहीं विसाल, कहीं आदमी तो कहीं हूर, कहीं तारीक़ी तो कहीं नूर, कहीं सवाल तो कहीं जवाब। गरचे कि इंसानी ज़िंदगी इन्हीं सब मरहलों से होकर गुज़रती है। बशीर बद्र की ग़ज़लों ने ज़िंदगी के इन्हीं तमाम पहलू, रंग और ज़ाविए को अपनी दामन में समेटा है। इन्होंने उर्दू अदब को वो मेअयार बख़्शा जिसकी किरणों से आने वाली नस्लें हमेशा फ़ैज़ पाएँगी!

“उजाले अपनी यादों के हमेशा साथ रहने दो ना जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।”

ज़दीद उर्दू ग़ज़ल का कोई भी मंज़रनामा बग़ैर डाक्टर बशीर बद्र के तज़्करे के मुकम्मल नहीं हो सकता। इस अहद की ग़ज़ल के इमाम हैं बद्र साहब। बशीर बद्र साहब के बारे में ये कह सकते हैं कि हसीन ख़्वाबों और सख़्त हक़ीक़तों के टकराने से जो लतीफ़ ओ नाज़ुक एहसास पैदा होते हैं, ये उसकी तरज़ुमानी करने वाली शख़्सियत हैं।

इनकी शायरी गोया यूँ महसूस होती है जैसे किसी फूल पे शबनम टपक रही हो। मीर ओ ग़ालिब की कड़ी की आख़िरी विरासत बशीर बद्र हैं, इनके जाने के बाद उर्दू अदब का ये अज़ीम सफ़रनामा हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा।

बशीर बद्र एक ऐसे शायर हैं जिन्होंने लोगों के दिलों पे हुकूमत किया, जितनी शोहरत और पज़ीराई इन्हें मिली है उतनी किसी और को मिलनी मुश्किल है। सदी के अज़ीम शायरों में इनका नाम आता है।

अपने ज़माने में ये महफ़िलों की रौनक़ हुआ करते थे और इनकी मौजूदगी मुशयारों की कामियाबी की ज़मानत होती थी, दीवानगी इस हद तक थी कि लोग इनसे एक एक घंटे शेर पढ़वाते थे।

पर आज ये शख़्स अकेले अपने घर में बेहद तन्हा पड़ा है, बीमारी ने तो इन्हें किनारे किया ही है पर इस समाज ने और इस सियासत ने इनके साथ और ज़्यादा बेवफाई की है। भोपाल में आज ये शख़्स अपने अहलखाने के साथ ख़ालिक़ ए हक़ीकी के बुलावे का इंतज़ार कर रहे हैं।

पर आज भी इनके दिल में रह रह के फिर से पहले जैसा होने की इनकी बेचैनी और बेबसी तड़पा रही है। सब कुछ भूल चुके हैं, शिकवे हैं, शिकायतें हैं। शायद इसीलिए दुनिया वालों के लिए पहले ही कह दिए थे,

“सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में बस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों में”

इनके और कुछ बेहतरीन अशआर,

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।

यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे।

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता।

ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है।