-खान शाहीन
भारत जैसे देशों में जहाँ साम्राज्यवादी सम्पर्क से परम्परागत उत्पादन का ढाँचा टूट गया है और लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए उत्पादन के तेज विकास की जरूरत है , वहाँ उपभोक्तावाद के असर से विकास की सम्भावनाएँ कुंठित हो गयी हैं।एक नया अभिजात वर्ग पैदा हो गया है जिसने उपभोक्तावादी संस्कृति को अपना लिया है। इस वर्ग मे उन चीज़ों की भूख़ जग गयी है जो असल मे जीवन जीने के लिए बहुत महत्वपूर्ण नही है।
उपभोक्तावादी जीवन शैली मे आप घर को किस तरह सजाते है, किस तरह कपड़े पहनते है, किस तरह मनोरंजन करते है आदि चीज़ों को समाज मे लोगो की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है। अधिक से अधिक वस्तुओ का खरीदना उनको उपभोग व प्रदर्शन करना, यह लोगो को जीवनशैली बन चुकी है। संस्कृति भी आज बाजार का हिस्सा बन चुकी है, भारतीय संस्कृति के गौरव- योग, आयुर्वेद और पुष्कर जैसे मेलो पर बाजारीकरण के प्रभाव परिलक्षित होना इसका उदाहरण है। जैसा की मैने पहले कहा एक अभिजात वर्ग जो की हमारी देश की राजनीती के शीर्ष स्थान पर है , देश के सीमित साधनों का उपयोग धड़ल्ले से लोगों की आम आवश्यकता की वस्तुओं का निर्माण करने के बजाय उद्योगों और सुविधाओं के विकास के लिए हो रहा है जिससे इस वर्ग की उपभोक्तावादी आकाँक्षाओं की पूर्ति हो सके। इससे भ्रष्ट्राचार को भी बहुत हद तक बढ़ावा मिला है।हमारे देश मे उच्च वर्ग के लोगो पर उपभोक्तावादी जीवनशैली का प्रभाव बहुत अधिक देखने को मिलता है और इनकी अतिरिक्त पूँजी विकास के बजाए उद्योगपतियों की जेबो मे जाती है, मध्यम वर्ग आज इसी दौड़ मे अपनी पूँजी को बर्बाद करने मे लगा है।तभी हमारा भारत आज सिर्फ विकास के सपने देखता है लेकिन कोई विकास की किरण नज़र नही आती आती, जो गरीब है वो और गरीब और जो अमीर है वो और अमीर होता जा रहा है। भारत मे उपभोक्ता आन्दोलन को दिशा 1966 में जेआरडी टाटा के नेतृत्व में कुछ उद्योगपतियों द्वारा उपभोक्ता संरक्षण के तहत फेयर प्रैक्टिस एसोसिएशन की मुंबई में स्थापना की गई। 9 दिसम्बर 1986 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर उपभोक्ता संरक्षण विधेयक अधिनियम पारित किया गया। अधिनियम में बाद में 1993 व 2002 में महत्वपूर्ण संशोधन किए गए। इस अधिनियम के अधीन पारित आदेशों का पालन न किए जाने पर धारा 27 के अधीन कारावास व दण्ड तथा धारा 25 के अधीन कुर्की का प्रावधान किया गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने गाँवों की अर्थव्यवस्था के इस पहलू को समाप्त कर दिया है। अब धीरे – धीरे गाँवों में भी सम्पन्न लोग उन वस्तुओं के पीछे पागल हो रहे हैं जो उपभोक्तावादी संस्कृति की देन हैं।हाल तक गाँवो के उपभोग का स्तर बहुत नीचा था जो की उद्योगों के विकास के लिए एक बड़ी बाधा बन रहा था लेकिन अब गाँवो मे भी उपभोक्तावादी जीवनशैली का स्तर बढ़ता नज़र आने लगा है।